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१९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० १४ / प्र० २
३. इसमें प्रतिपादित अपरिग्रहमहाव्रत का लक्षण यापनीय-मान्यताओं का विरोधी
है।
४. इसमें विधान किया गया है कि अचेल को ही महाव्रत प्रदान किये जाने चाहिए।
५. इसमें अचेल को ही निर्ग्रन्थ कहा गया है।
६. तीर्थंकरों का अचेललिंग ही मोक्ष का एकमात्र मार्ग तथा सभी मोक्षार्थियों के लिए नियम से ग्राह्य बतलाया गया है। यह यापनीयमत की सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति की मान्यताओं के विरुद्ध है।
७. पुरुषशरीर को ही संयम का साधन कहा गया है, जो यापनीयों की स्त्रीमुक्ति की मान्यता का विरोधी है।
८. वस्त्रादिपरिग्रह से युक्त मनुष्य को संयतगुणस्थान की प्राप्ति के अयोग्य निरूपित किया गया है। यह भी सवस्त्रमुक्ति आदि यापनीय मान्यताओं के प्रतिकूल है।
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९. क्षुधापरीषह और भोजन की आकांक्षा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही बतलायी गई है। इससे यापनीयों की केवलिभुक्ति की मान्यता का निषेध होता है।
१०. बन्ध और मोक्ष की सम्पूर्ण व्यवस्था गुणस्थान- केन्द्रित दर्शायी गई है, जो यापनीयों की मोक्षव्यवस्था के विरुद्ध है ।
११. साधुओं के मूलगुणों और उत्तरगुणों का वर्णन दिगम्बरपरम्परा के अनुरूप
१२. वेदत्रय और वेदवैषम्य स्वीकार किये गये हैं, जो यापनीयों को अस्वीकार्य
है।
हैं।
१३. साधु के लिए केशलुंच अनिवार्य बतलाया गया है। यापनीयमान्य श्वेताम्बर कल्पसूत्र में छुरे - कैंची से भी मुण्डन कराने की छूट है।
१४. साधु के लिए आहार में मांस, मधु और मद्य के निषेध है। यापनीयमान्य श्वेताम्बर - आगमों में उन्हें अपवादरूप से गई है।
१५. विजयोदया में कालद्रव्य का अस्तित्व माना गया है। यह मान्यता यापनीयमान्य श्वेताम्बर - आगमों के विपरीत है।
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ग्रहण का कठोरतापूर्वक ग्रहण करने की अनुमति
१६. विजयोदया में वर्णित चार अनुयोगों के नाम दिगम्बरपरम्परा के अनुरूप एवं श्वेताम्बरपरम्परा के विरुद्ध हैं ।
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