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२१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१५/प्र०१
नौ अनुदिश-स्वर्गों की मान्यता श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों में अनुदिश नामक नौ स्वर्ग भी नहीं माने गये हैं, पर मूलाचार मानता है। देखिए उसके उत्तरार्ध यह गाथा
णिव्वुदिगमणे रामत्तणे य तित्थयरचक्कवट्टित्ते।
अणुदिसणुत्तरवासी तदो चुदा होति भयणिजा॥ ११८३॥ अनुवाद-"अनुदिश और अनुत्तरवासी देवों का वहाँ से च्युत होकर मोक्ष जाना अथवा बलदेव, तीर्थंकर या चक्रवर्ती का पद पाना भी संभव है।"
अनुदिश स्वर्गों के अस्तित्व की यह यापनीय-विरुद्ध मान्यता भी सिद्ध करती है कि मूलाचार दिगम्बरग्रन्थ ही है।
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वेदत्रय की स्वीकृति मूलाचार (उत्त.) की निम्नलिखित गाथाओं में बतलाया गया है कि प्रत्येक संसारी जीव में चारित्रमोहनीय कर्म की २५ प्रकृतियों की सत्ता होती है
कोहो माणो माया लोहोणंताणुबंधिसण्णा य। अप्पच्चक्खाण तहा पच्चक्खाणो य संजलणो॥ १२३४॥ इत्थीपुरिसणउंसयवेदा हास रदि अरदि सोगो य।
भयमेतो य दुगंछा णवविह तह णोकसायभेयं तु॥ १२३५॥ इनमें स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद भी शामिल हैं। इससे स्पष्ट है कि मूलाचार कर्मभूमि के प्रत्येक गर्भज मनुष्य और गर्भज संज्ञी तिर्यंच में वेदत्रय का अस्तित्व स्वीकार करता है। वेदत्रय की स्वीकृति यापनीयमत के विरुद्ध है। इसका विवेचन षट्खण्डागम के अध्याय में किया जा चुका है। मूलाचार में वेदत्रय की स्वीकृति इस बात का प्रमाण है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है।
दिगम्बरमत के ये दस सिद्धान्त, जो मूलाचार में प्रतिपादित हुए हैं, यापनीयमत के विरुद्ध हैं। इन पर दृष्टि डालने से इस निर्णय में सन्देह के लिए स्थान ही नहीं रहता कि यह दिगम्बराचार्य की ही कृति है, यापनीय-आचार्य की नहीं। प्रेमी जी और उनके अनुसर्ताओं ने इसे यापनीयग्रन्थ माना लिया, यह महान् आश्चर्य की बात
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