________________
२२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१५ / प्र० २
है, तथापि स्त्री को बाह्य महाव्रतों की दीक्षा देने का एक महत्त्वपूर्ण प्रयोजन है। वह प्रयोजन है उसे स्त्रीशक्ति के अनुसार उच्चतम त्याग और तप की प्रेरणा देना और यह ज्ञापित करना कि स्त्री भी तप और त्याग की बहुत ऊँचाई तक पहुँच सकती है और यह उच्च तप-त्याग निरर्थक नहीं है । यद्यपि इससे कर्मों का संवर और निर्जरा मुनि के बराबर नहीं होती, तथापि सम्यग्दर्शन- सहित होने से इससे ऐसे उत्कृष्ट पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध होता है, जिससे वह सोलहवें स्वर्ग तक का देव या इन्द्र बन जाती है, साथ ही अगले भव में मुनिव्रत धारण करने योग्य पुरुष - शरीर एवं उत्तमसंहननादि सामग्री उपलब्ध कर लेती है। इस प्रकार उपचार - महाव्रत परम्परया मोक्षसाधक होने से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं ।
आचार्य जयसेन ने इस औपचारिक महाव्रत - दीक्षा का प्रयोजन कुलव्यवस्था बतलाया है। श्वेताम्बरों की ओर से प्रश्न उठाकर उसका समाधान करते हुए वे कहते हैं
'अथ मतं - यदि मोक्षो नास्ति तर्हि भवदीयमते किमर्थमर्जिकानां महाव्रतारोपणम्? परिहारमाह—तदुपचारेण कुलव्यवस्थानिमित्तम् । न चोपचारः साक्षाद् भवितुमर्हति अग्निवत् क्रूरोऽयं देवदत्त इत्यादिवत् । तथा चोक्तम् — मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्तते ।" (ता.वृ./ प्र.सा./ आ. जयसेननिर्दिष्ट गाथा 'जदि दंसणेण सुद्धा' ३ / २४ / १३ / पृ. २७७-२७८)।
अनुवाद- - " मान लिया कि आपके मत में स्त्रियों को मोक्ष नहीं होता, तब उन पर महाव्रतों का आरोपण क्यों किया जाता है? समाधान – वह संघव्यवस्था ( श्राविकाओं और ब्रह्मचारिणियों को अनुशासित करने तथा वैयावृत्यादि की व्यवस्था ) के लिए उपचार से किया जाता है । उपचार यथार्थ नहीं होता, जैसे 'यह देवदत्त अग्नि के समान क्रूर है' ऐसा उपचार से कथन करने पर यह सिद्ध नहीं होता कि देवदत्त सचमुच में अग्नि है । वस्तु- विशेष पर किसी धर्म का उपचार तभी किया जाता है, जब वह उसमें स्वभावतः विद्यामान नहीं होता और उपचार करने के लिए कोई निमित्त तथा प्रयोजन होता है । "
श्रुतसागर सूरि के अनुसार सज्जातित्व ज्ञापित करने केलिए स्त्रियों पर महाव्रतों का उपचार किया जाता है । ३० आर्यिका श्री सुपार्श्वमती जी लिखती हैं- "वीरसेन
३०. “तासां स्त्रीणां कथं भवति प्रव्रज्या दीक्षा अपितु न भवति । यदा प्रव्रज्या न भवति तर्हि कथं पञ्च महाव्रतानि दीयन्ते ? सत्यमेतत्, सज्जातिज्ञापनार्थं महाव्रतानि उपचर्यन्ते स्थापना न्यासः क्रियत इत्यर्थः ।" श्रुतसागरटीका / सुत्तपाहुड / गा. २४ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org