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२३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१५/प्र०२
स्त्री की औपचारिक दीक्षा मान्य . यापनीयपक्ष
डॉ० सागरमल जी का कथन है कि मूलाचार में स्त्रीदीक्षा का विधान है, जब कि कुन्दकुन्द ने स्त्रीप्रव्रज्या का निषेध किया है। अतः यह कुन्दकुन्द की परम्परा का ग्रन्थ न होकर यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ है। (जै.ध.या.स. / पृ. १३२,१३४)। दिगम्बरपक्ष
. मूलाचार में आचेलक्य को मुमुक्षु का मूलगुण बतलाया गया है, जो स्त्री के लिए सम्भव नहीं है, क्योंकि स्त्रीसुलभ लज्जा, मासिकस्रावजन्य जुगुप्सोत्पादकता, पुरुषों के चित्त में काम-विकार की उत्पत्ति तथा शीलभंग का भय, इत्यादि प्रतिकूल हेतु स्त्री के नग्नत्व में बाधक हैं। इसके अतिरिक्त स्त्रियों में प्रमाद, मोह, प्रद्वेष, भय, जुगुप्सा और मायाचार की बहुलता होती है, जो परमात्मतत्त्व के ध्यान में विघ्न उत्पन्न करते हैं। प्रतिमास होनेवाला रक्तस्राव चित्तशुद्धि का विनाशक है। उनके चित्त में वह दृढ़ता नहीं होती, जिससे तद्भवमुक्ति-योग्य परिणाम उत्पन्न हो सकें। स्त्रियों के गुह्य अंगों में निरन्तर मनुष्यादि-सम्मूर्छन जीवों का जन्म और मरण बहुलता से होता रहता है, जिससे वे संयम धारण करने में असमर्थ हैं। उनमें प्रथम संहनन का अभाव होता है, जो मुक्तियोग्य विशेषसंयम के लिए आवश्यक है। इसलिए वे तद्भवकर्मक्षय योग्य सकलनिर्जरा नहीं कर पातीं।३६ इन कारणों से स्त्रीमुक्ति संभव नहीं है। इस बात को ध्यान में रखते हुए मूलाचार के कर्ता ने स्त्री के लिए पुरुषवत् निर्वस्त्र पारमार्थिक दीक्षा का विधान नहीं किया, अपितु स्त्री के योग्य सवस्त्र औपचारिक दीक्षा उचित मानी है। औपचारिक दीक्षा का अर्थ है प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम न होते हुए भी तथा वस्त्रत्याग में असमर्थ रहते हुए भी स्त्री को आंशिक महाव्रत और एक साड़ीवाला अल्पपरिग्रहात्मक लिंग प्रदान करना। इसका प्रयोजन है स्त्रियों को यथाशक्ति उच्च धर्म के अभ्यास की प्रेरणा देना और उच्च पद देकर नारीजगत् (श्राविकासंघ) में धर्मानुशासन स्थापित करना।३७ औपचारिक महाव्रतों से यद्यपि संयतगुणस्थान के अनुरूप निर्जरा नहीं होती, तथापि पापों का संवर और उत्कृष्ट पुण्य का आस्रव होता ३६. तात्पर्यवृत्ति/ प्रवचनसार । आचार्य जयसेननिर्दिष्ट गाथाएँ ३/२४/८-१३ / पृ. २७६-२७७। ३७. “अथ मतं-यदि मोक्षो नास्ति तर्हि भवदीयमते किमर्थमर्जिकानां महाव्रतारोपणम्?
परिहारमाह-तदुपचारेण कुलव्यवस्थानिमित्तम्। न चोपचारः साक्षाद् भवितुमर्हति अग्निवत् क्रूरोऽयं देवदत्त इत्यादिवत्।" (तात्पर्यवृत्ति/प्रवचनसार/ आचार्य जयसेननिर्दिष्ट गाथा 'जदि दंसणेण सुद्धा' ३ / २४ / १३/ पृ. २७७-२७८ ।
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