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अ० १५/प्र०२
मूलाचार / २३५ के सम्पादकीय में ये तीनों विद्वान् संयुक्त रूप से लिखते हैं-"मूलाचार की अनेक गाथाएँ दिगम्बर तथा श्वेताम्बर ग्रन्थों में पायी जाती हैं, इससे स्पष्ट होता है कि कुछ गाथाएँ परम्परा से चली आ रही हैं और उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने उन्हें अपने ग्रन्थों में यथास्थान संगृहीत कर अपने ग्रन्थ का गौरव बढ़ाया है।" (मूलाचार / सम्पादकीय । पृ. १०)।
माननीय पं० नाथूराम जी प्रेमी भी पूर्व में ऐसे ही विचार व्यक्त कर चुके हैं और पं० सुखलाल जी संघवी ने भी यही मत प्रकट किया है। इसका निरूपण भगवतीआराधना के अध्याय में किया जा चुका है।
इस तरह इन विद्वानों और स्वयं डॉ० सागरमल जी के उक्त वचनों से सिद्ध है कि मूलाचार की जो गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं से समानता रखती हैं, वे श्वेताम्बरग्रन्थों से नहीं ली गई हैं, अतः उनके आधार पर मूलाचार यापनीय-ग्रन्थ सिद्ध नहीं होता।
किन्तु इन विद्वानों ने जो यह माना है कि उक्त समान गाथाएँ दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं को अपनी समान पूर्वपरम्परा से प्राप्त हुई हैं, उस विषय में मेरा मत भिन्न है। मेरा मत यह है कि जब पाँचवी शती ई० (४५४-४६६ ई०) में श्री देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण द्वारा श्रुतिपरम्परागत समस्त अंगों और उपांगों को पुस्तकारूढ़ कर दिया गया और उनमें से किसी भी अंग या उपांग में उक्त समान गाथाएँ उपलब्ध नहीं हैं, जो कि 'आवश्यकनियुक्ति' आदि पाँचवी शती ई० के बाद के ग्रन्थों में हैं, तब यह कैसे कहा जा सकता है कि उक्त समान गाथाएँ, श्वेताम्बरपरम्परा को अपनी पूर्व परम्परा. से उपलब्ध हुई हैं? वे गाथाएँ भगवती-आराधना और मूलाचार की गाथाओं से मिलती हैं, अतः सिद्ध है कि वे इन्हीं ग्रन्थों से उक्त श्वेताम्बरग्रन्थों में पहुँची हैं।
इस प्रकार यह निश्चित है कि मूलाचार में श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाएँ नहीं हैं, अतः वह यापनीयमत का ग्रन्थ नहीं है। इससे सिद्ध है कि यह हेतु भी असत्य है।
कथित गाथाएँ दिगम्बरत्व-विरोधी नहीं यापनीयपक्ष
प्रेमी जी-"मूलाचार की 'सेज्जोगासणिसेजा' आदि ३९१वीं गाथा और 'आराधना' की ३०५वीं गाथा एक ही हैं। इसमें कहा है कि वैयावृत्ति करनेवाला मुनि रुग्ण मुनि
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