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२३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१५ / प्र०२ "किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के शिष्य चंचलचित्त और मूढ़ होते हैं, अतः उनके लिए सर्व प्रतिक्रमण आवश्यक हैं, क्योंकि अन्धलक-घोटकन्याय से एकएक प्रतिक्रमण करते जाने पर किसी न किसी से चित्त स्थिर होकर दोष दूर हो सकता है।" (६३२)।
इस प्रकार उपर्युक्त गाथाओं का अभिप्राय कुन्दकुन्द की परम्परा अर्थात् दिगम्बरपरम्परा के अनुकूल ही है, अतः उनके कारण भी मूलाचार यापनीयग्रन्थ नहीं कहा जा सकता। इससे सिद्ध है कि मूलाचार को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु भी असत्य है।
'आचार', 'जीतकल्प' ग्रन्थों के नाम नहीं यापनीयपक्ष
प्रेमी जी-"भगवती-आराधना की ४१४वीं गाथा के समान इसकी (मूलाचार की) भी ३८७ वीं गाथा आचार-जीत-कल्प ग्रन्थों का उल्लेख है, जो यापनीय और श्वेताम्बर-परम्परा के हैं और उपलब्ध भी हैं।" (जै.सा.इ. / द्वि.सं./पृ.५५१)। दिगम्बरपक्ष मूलाचार (पू.) की उपर्युक्त गाथा इस प्रकार है
आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधि णिज्जंजा।
अज्जव-मद्दव-लाहव-भत्ती-पल्हाद-करणं च॥ ३८७॥ अनुवाद-"विनय से आचार, जीत और कल्प गुणों का दीपन (प्रकाशन) होता है तथा आत्मशुद्धि, निर्द्वन्द्वता, आर्जव, मार्दव, लघुता, भक्ति और आह्लाद गुण प्रकट होते हैं।"
'भगवती-आराधना' के अध्याय में सिद्ध किया जा चुका है कि उसमें आचार और जीतकल्प शब्दों से श्वेताम्बरग्रन्थों का उल्लेख नहीं है, अपितु क्षपक के चरण (आचरण) और करण (आवश्यक क्रियाओं) का उल्लेख है। मूलाचार में भी वे श्वेताम्बरग्रन्थों के नाम नहीं हैं, बल्कि मुनि के आचरण तथा 'जीत' नामक प्रायश्चित्त एवं 'कल्प' नामक प्रायश्चित्त के नाम हैं। यह इस तथ्य से सिद्ध है कि मूलाचार की उपर्युक्त गाथा विनयतप के प्रसंग में लिखी गई है और उसमें विनय से उत्पन्न होनेवाले मुनि के गुणविशेषों का ही वर्णन है। टीकाकार आचार्य वसुनन्दी के निम्नलिखित वचनों से यह स्पष्ट है
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