________________
२३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० १५ / प्र० २
का आहार, औषधि आदि से उपकार करे।" (जै.सा. इ. / द्वि.सं. / पृ. ५५० -५५१) । यह दिगम्बर - परम्परा के विरुद्ध है, अतः दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ नहीं हो सकता । दिगम्बरपक्ष
मूलाचार में मुनि के लिए स्वयं भोजन पकाने और पकवाने का निषेध किया गया है । ३९ अतः स्वयं भोजन पकाकर या पकवाकर रुग्ण मुनि को देने का अभिप्राय तो यहाँ हो नहीं सकता । पात्रग्रहण की अनुमति भी नहीं है, अतः समीप में पात्र न होने से श्रावक के यहाँ से स्वयं लाकर रुग्ण मुनि को देने की संभावना भी नहीं की जा सकती। एक ही संभावना बचती है कि मुनि श्रावक को संकेत कर रुग्णमुनि के लिए आहार और औषधि की व्यवस्था करावे । और यह दिगम्बर- मर्यादा के विरुद्ध नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी इसका समर्थन किया है। (प्र. सा. ३ / ५४) । उक्त गाथा भगवती - आराधना में ( गाथा ३०७ ) भी है। इसका विस्तार से स्पष्टीकरण भगवतीआराधना के अध्याय में किया गया है।
इस प्रकार दिगम्बरमत-विरोधी न होते हुए भी उक्त गाथा को दिगम्बरमत-विरोधी माना गया है, अतः यह हेतु असत्य है । हेतु के असत्य होने से स्पष्ट है कि मूलाचार यापनीयग्रन्थ नहीं है ।
यापनीयपक्ष
प्रेमी जी - " मूलाचार की 'बावीसं तित्थयरा' और 'सपडिक्कमणो धम्मो इन दो गाथाओं में जो कुछ कहा गया है, वह कुन्दकुन्द की परम्परा में अन्यत्र कहीं नहीं कहा गया है। ये ही दो गाथाएँ भद्रबाहुकृत आवश्यकनिर्युक्ति में हैं और वह श्वेताम्बरग्रन्थ है।" (जै. सा. इ. / द्वि.सं./ पृ. ५५१)।
दिगम्बरपक्ष
मूलाचार (पू.) की उक्त दो गाथाएँ इस प्रकार हैं
बावीसं तित्थयरा सामायियसंजमं उवदिसंति । छेदुवठावणियं पुण भवयं उसहो य वीरो य ॥ ५३५ ॥
अनुवाद - " बाईस तीर्थंकरों ने सामायिक संयम का उपदेश दिया है, किन्तु भगवान् वृषभदेव और महावीर ने छेदोपस्थापना संयम का उपदेश दिया है । "
३९. पयणं व पायणं वा ण करेंति अ णेव ते करावेंति । पयणारंभणियत्ता
Jain Education International
तुट्ठा भिक्खमेत्तेण ॥ ८२१ ॥ मूलाचार / उत्तरार्ध ।
४०. देखिए, षट्खंडागम - परिशीलन / प्रस्तावना / पृ. ३० ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org