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अ० १५ / प्र०२
मूलाचार / २३१ है। इस औपचारिक दीक्षा का उल्लेख मूलाचार (पू.) में निम्न गाथा में किया गया है
अविकारवत्थवेसा जल्लमलविलित्तचत्तदेहाओ।
धम्मकुलकित्तिदिक्खापडिरूवविसुद्धचरियाओ॥ १९०॥ अनुवाद-"आर्यिकाओं का वस्त्र और वेश निर्विकार होता है अर्थात् वे रंगीन वस्त्र धारण न कर श्वेत रंग की एक साड़ी से सम्पूर्ण शरीर ढंकती हैं। उनकी चालढाल, मुखमुद्रा, दृष्टि आदि पवित्र होती है। वे शरीर का संस्कार नहीं करती, फलस्वरूप देह धूल और मैल से संसक्त रहती हैं। वे धर्म, कुल (माता एवं पिता के कुल) अपने यश और दीक्षा (व्रतों) के अनुरूप निर्दोष आचरण करती हैं।"
इस गाथा से स्पष्ट है कि मूलाचार में स्त्रियों के लिए सवस्त्र औपचारिक दीक्षा का ही विधान है।
- आचार्य कुन्दकुन्द ने भी स्त्रियों की मुक्ति संभव न होने के कारण उनकी पारमार्थिक दैगम्बरी दीक्षा का ही निषेध किया है, औपचारिक सवस्त्र दीक्षा का नहीं। सर्वप्रथम वे स्त्रियों की आर्यिकारूप एकवस्त्रात्मक औपचारिक दीक्षा का ही प्रतिपादन करते हैं, पश्चात् उनकी मुक्ति को असंभव बतलाते हुए मोक्षकारणभूत पारमार्थिक दैगम्बरी दीक्षा का निषेध करते हैं। वे कहते हैं-पहला निर्ग्रन्थलिंग मुनि का है, दूसरा वस्त्र-पात्रयुक्त लिंग उत्कृष्ट श्रावक का और तीसरा एकवस्त्रात्मक लिंग आर्यिका का। (सुत्तपाहुड/ गा. २०-२२)। आर्यिका के लिंग का वर्णन करते हुए वे सुत्तपाहुड में कहते हैं
लिंग इत्थीणं हवदि भुंजइ पिंडं सुएयकालम्मि।
अजिय वि एक्कवत्था वत्थावरणेण भुंजेइ॥ २२॥ अनुवाद-"(तीसरा) लिंग स्त्रियों का है। उसे धारण करनेवाली स्त्री आर्यिका कहलाती है। वह एकवस्त्रधारी होती है तथा वस्त्रधारण किये हुए ही दिन में एक बार भोजन करती है।"
किन्तु सुत्तपाहुड में ही उन्होंने इस लिंग से मोक्षप्राप्ति का निषेध निम्नलिखित गाथा में किया है
ण वि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो।
णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे॥२३॥ __ अनुवाद-"जैनशासन के अनुसार वस्त्रधारी मनुष्य यदि तीर्थंकर भी हो, तो भी सिद्ध नहीं हो सकता। नग्नत्व ही मोक्ष का मार्ग है, शेष सभी मार्ग उन्मार्ग (संसारमार्ग) हैं।"
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