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अ० १५ / प्र०२
मूलाचार / २२५ आचार्य ने आचारसार में लिखा है कि महाव्रत धारण करने में देश, कुल, जाति की शुद्धि अवश्य होनी चाहिए। यह स्त्री उत्तम कुल और उत्तम जाति की है, इस विशेषता को बताने के लिए उपचार से महाव्रत दिये जाते हैं।"३१
इस प्रकार दिगम्बर-परम्परा में आर्यिकाओं को उपचार से महाव्रती माना गया है, अतः उनके लिए 'विरती', 'संयती' और 'श्रमणी' विशेषणों का प्रयोग भी उपचार से ही किया गया है। इस कारण उन्हें मुनिवत् परमार्थतः महाव्रती, विरती, संयती या श्रमणी मान लेना युक्तिसंगत नहीं है।
निर्ग्रन्थी शब्द का प्रयोग नहीं एक बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि मूलाचार में आर्यिका के लिए उपचार से 'विरती' शब्द का प्रयोग तो किया गया है, किन्तु 'निर्ग्रन्थी' शब्द का प्रयोग उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि दिगम्बरजैन-परम्परा में निर्ग्रन्थलिंग या जिनलिंग मुख्यतः शरीर के नग्नत्व का वाचक है और आर्यिका नग्न नहीं रहती। अतः उसके लिए उपचार से भी 'निर्ग्रन्थी' शब्द का व्यवहार सम्भव नहीं है, क्योंकि उसका न तो कोई निमित्त है, न कोई प्रयोजन।३२ यह इस बात का प्रमाण है कि 'मूलाचार' में आर्यिका को मुनितुल्य नहीं माना गया है। श्वेताम्बरपरम्परा में 'निर्ग्रन्थ' शब्द नग्नत्व का सूचक नहीं है, क्योंकि उसमें सवस्त्रमुक्ति मानी गयी है। अतः वहाँ मुनि और आर्यिका दोनों के लिए 'निर्ग्रन्थ' और 'निर्ग्रन्थी' शब्दों का प्रयोग किया गया है। यापनीय श्वेताम्बरआगमों को प्रमाण मानते थे तथा उन्हें सवस्त्रमुक्ति भी मान्य थी। अतः उनके शास्त्रों में भी आर्यिका के लिए 'निर्ग्रन्थी' संज्ञा का प्रयोग होना युक्तियुक्त है। किन्तु मूलाचार में आर्यिका के लिए कहीं भी 'निर्ग्रन्थी' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। यह इस बात का प्रमाण है कि वह यापनीय-परम्परा से विपरीत मत रखनेवाली दिगम्बर-परम्परा का ग्रन्थ है।
३१. सुत्तपाहुड / गा.२४-२५/ पृ. १२० (षट्पाहुड/ प्रकाशिका-शान्तिदेवी बड़जात्या, गौहाटी,
सन् १९८९ ई.)। ३२. "निश्चयतः स्त्रीणां नरकादिगतिविलक्षणानन्तसुखादिगुणस्वभावा तेनैव जन्मना सिद्धिर्न
दिष्टा न कथिता। तस्मात्कारणात् प्रतियोग्यं सावरणरूपं निर्ग्रन्थलिङ्गात् पृथक्त्वेन विकल्पितं कथितं लिङ्गं प्रावरणसहितं चिह्नम्। कासाम्? स्त्रीणामिति।" ता. वृ./ प्र.सा. / आ. जयसेननिर्दिष्ट गाथा 'णिच्छयदो इत्थीणं' ३ / २४ / ७ / पृ. २७५-२७६ ।
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