________________
२२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१५/प्र०२
आर्यिकाओं के लिए मुनियोग्य सामाचार का विधान नहीं
यापनीयपक्ष
प्रेमी जी-"चौथे सामाचार अधिकार (गाथा १८७)३३ में कहा है कि अभी तक कहा हुआ यह यथाख्यातपूर्व सामाचार आर्यिकाओं के लिए भी यथायोग्य जानना। इसका अर्थ यह हुआ कि ग्रन्थकर्ता मुनियों और आर्यिकाओं को एक ही श्रेणी में रखते हैं।" (जै. सा. इ./द्वि. सं. / पृ. ५५२)। दिगम्बरपक्ष
'मूलचार' में सामाचार के दो भेद बतलाये गये हैं : औधिक और पदविभागी। औधिक सामाचार के दश भेद हैं-इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आसिका, निषेधिका, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छन्दन, सनिमन्त्रणा और उपसम्पत्। पदविभागी सामाचार के अनेक भेद हैं। (गा. १२४-१२५)।
यद्यपि मुनियों के लिए विहित यह सामाचार आर्यिकाओं के लिए भी विहित किया गया है, तथापि गाथा में यथायोग्य शब्द के प्रयोग से स्पष्ट है कि ग्रन्थकार सामाचार के पालन में मुनि और आर्यिका की योग्यता को समान नहीं मानते। आर्यिका को मुनि की अपेक्षा कम योग्य मानते हैं। इसके अतिरिक्त मूलगुणों के पालन में भी उन्होंने समानता का अभाव दिखलाया है। जहाँ अट्ठाईस मूलगुणों में मुनियों के लिए आचेलक्य (नग्नत्व), स्थितिभक्त (खड़े होकर भोजन करना) तथा कायक्लेश तप के वृक्षमूल, आतापन, अभ्रावकाश और प्रतिमायोग, इन कठोर प्रकारों का विधान है, वहाँ आर्यिकाओं के लिए इनका निषेध है। उन्हें वस्त्रधारण अनिवार्य बतलाया गया है, जब कि वह मोक्ष के आधारभूत नैर्ग्रन्थ्य (आचेलक्य) मूलगुण का विरोधी है। मूलाचार में निर्ग्रन्थों को ही मोक्ष का पात्र कहा गया है और निर्ग्रन्थता का लक्षण बतलाया है- वस्त्र, चर्म, वल्कल या पत्र से शरीर को आच्छादित न करना।३५ निर्ग्रन्थता के अभाव में आर्यिकाओं को अच्युत स्वर्ग से ऊपर जाने के अयोग्य बतलाया है। वन्दना और दीक्षा की दृष्टि से भी उनमें असमानता प्रदर्शित की गई है। आर्यिका
३३. एसो अज्जाणंपि अ सामाचारो जहक्खिओ पुव्वं ।
सव्वम्हि अहोरत्ते विभासिदव्वो जधाजोग्गं ॥ १८७॥ मूलाचार/पूर्वार्ध । ३४. अविकारवत्थवेसा जल्लमलविलित्तचत्तदेहाओ।
धम्मकुलकित्तिदिक्खापडिरूवविसुद्धचरियाओ॥ १९०॥ मूलाचार / पूर्वार्ध । ३५. देखिए , इसी अध्याय के प्रथम प्रकरण में शीर्षक १.३ एवं १.६ ।
Jain Education Interational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org