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२१६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० १५ / प्र० १
है । २० आचार्य वसुनन्दी ने सब ओर से परद्रव्य ग्रहण करने के परिणाम को मूर्च्छा और उस मूर्च्छा को परिग्रह कहा है । २१ तथा आचार्य अमृतचन्द्र ने इच्छा को परिग्रह बतलाया है— 'इच्छा परिग्रहः' (आ. ख्या. / स. सा. / गा. २१३)।
तात्पर्य यह कि श्वेताम्बर - आगमों में वस्त्र - पात्र रखने को परिग्रह न कहकर उनमें ममत्वरूप मूर्च्छा होने को परिग्रह कहा गया है। इसीलिए वहाँ साधु-साध्वी को वस्त्र - पात्रादि रखते हुए भी अपरिग्रही माना गया है। यापनीयमत में भी वस्त्रपात्रादि रखनेवाले स्थविर-कल्पियों, आर्यिकाओं, गृहस्थों और अन्यलिंगियों को मुक्ति का पात्र माना गया है, इसलिए वहाँ भी वस्त्र - पात्रादि रखने को परिग्रह न कहकर उनमें ममत्वरूप मूर्च्छा को परिग्रह कहा गया है। किन्तु मूलाचार में वस्त्रपात्रादि परद्रव्य की इच्छामात्र को परिग्रह बतलाया गया है, परद्रव्य को पाकर उसमें ममत्व न करने की तो बात ही दूर । वस्त्रपात्रादि को अपने पास रखना, उनको सँभालना - सँवारना बिना इच्छा के नहीं हो सकता। अतः मूलाचार में अपरिग्रह की जो परिभाषा की गई है, वह वस्त्रपात्रादि रखने की सर्वथा निषेधक है । यह परिभाषा यापनीय मत के सर्वथा विरुद्ध है। इससे सिद्ध होता है कि मूलाचार यापनीय - परम्परा का ग्रन्थ कतई नहीं है ।
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गुणस्थानानुसार रत्नत्रय के विकास की मान्यता
मूलाचार ( उत्त) की निम्नलिखित गाथाओं में चौदह गुणस्थानों का यथाक्रम वर्णन है—
मिच्छादिट्ठी सासादणो य मिस्सो असंजदो चेव ।
देसविरो पमत्तो अपमत्तो तह य णायव्वो ॥ ११९७ ॥
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एत्तो अपुव्वकरणो अणियट्टी सुहुमसंपराओ य । उवसंतखीणमोहो सजोगिकेवलिजिणो अजोगी य॥ ११९८ ॥
चारों गतियों के जीवों में गुणस्थानों के विकास की सीमा भी मूलाचार (उत्त. ) की अधोनिर्दिष्ट गाथा में बतलाई गयी है
सुरणारयेसु चत्तारि होंति मणुसगदी वि तहा
तिरियेसु जाण पंचेव । चोइसगुणणामधेयाणि ॥ १२०२ ॥
२०. “ णेहाणुराग आसा इच्छा मुच्छा य गिद्धी य ॥ ८९ ॥ कसायपाहुड / भाग १२ / पृ. १८९ । २१. “परिग्रहाः समन्तत आदानरूपा मूर्च्छा।" आचारवृत्ति / मूलाचार / पूर्वार्ध/गा. ९ ।
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