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अ० १५ / प्र० १
मूलाचार / २११
तत्तो परं तु णियमा उववादो णत्थि अण्णलिंगीणं । णिग्गंथसावगाणं उववादो अच्चदं जाव ॥ ११७६ ॥
यहाँ ‘सावगाणं' (श्रावकाणाम् ) पद में निर्ग्रन्थ (दिगम्बर जैन मुनि) को छोड़कर शेष सभी सवस्त्र जिनधर्मावलम्बियों का समावेश कर दिया गया है। आर्यिकाओं का भी कथन 'श्रावक' शब्द से हो गया है, क्योंकि निश्चयनय से वे पंचमगुणस्थानवर्ती ही होती हैं । १५ ऐसा नहीं समझना चाहिए कि यहाँ 'णिग्गंथ' शब्द आर्यिकाओं का भी वाचक है, क्योंकि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि मूलाचार में 'आचेलक्य' मूलगुण से युक्त दिगम्बर मुनि को ही 'निर्ग्रन्थ' शब्द से अभिहित किया गया है। श्वेताम्बर - आगमों में आर्यिकाओं को 'निर्ग्रन्थी' कहा गया है, किन्तु मूलाचार में कहीं भी उनके लिए 'निर्ग्रन्थी' संज्ञा का प्रयोग नहीं किया गया ।
गाथा के द्वितीय चरण में 'णिग्गंथ' पद के बाद छन्दानुरोध से सात मात्राओंवाले पद का ही प्रयोग हो सकता था । सावगाणं (श्रावकाणां) और अज्जिगाणं (आर्यिकाणां ) ये दोनों सात मात्राओं वाले पद हैं। इनमें से यदि 'अज्जिगाणं' पद का प्रयोग किया जाता, तो उससे केवल 'आर्यिका' अर्थ ही प्रतिपादित होता, जबकि 'सावगाणं' पद के प्रयोग से श्रावक, श्राविका तथा आर्यिका तीनों अर्थ प्रतिपादित हो जाते हैं । इसीलिए 'सावगाणं' पद का प्रयोग किया गया है। आचार्य वट्टकेर मूलाचार (उत्त.) में आगे कहते हैं
: जा उवरिमगेवेज्जं उववादो उक्कट्ठे तवेण दु तत्तो परं तु णियमा तवदंसण - णाण चरणजुत्ताणं । गिंथाणुववादो जावदु सव्वसिद्धि त्ति ॥ ११७८ ॥
अभवियाण उक्कस्सो । णियमा णिग्गंथलिंगेण ॥ ११७७ ॥
अनुवाद –" अभव्य पुरुष निर्ग्रन्थलिंग (दिगम्बरलिंग) से उत्कृष्ट तप करके अधिक से अधिक उपरिम (नौवें ) ग्रैवेयक तक उत्पन्न हो सकते हैं । किन्तु उससे आगे सर्वार्थसिद्धि विमान तक नियम से सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप से युक्त निर्ग्रन्थों का ही उपपाद (जन्म) होता है।"
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आचार्य वट्टकेर के ये वचन इस बात के प्रमाण हैं कि स्त्रियाँ अपने सर्वोच्च धर्माचरण के द्वारा केवल सोलहवें स्वर्ग तक ही पहुँच सकती हैं, उसके आगे नहीं, अतः उनकी स्त्रीशरीर से मुक्ति सम्भव नहीं है।
१५. ‘“निर्ग्रन्थाणां श्रावकाणां श्राविकाणाम् आर्यिकाणां च शुभपरिणामेनोत्कृष्टाचरणेनोपपादः सौधर्ममादिं कृत्वा यावदच्युतकल्पः ।" आचारवृत्ति / मूलाचार / उत्तरार्ध / गा.११७६ ।
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