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२१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१५/प्र०१ और दिगम्बरग्रन्थ होने का इससे बड़ा प्रमाण और क्या चाहिए? मूलाचार का 'मूलगुणाधिकार' नामक प्रथम अधिकार ही इस दावे को नकार देता है कि यह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। २.३. उत्तरगुण भी यापनीय मत में अमान्य
मूलाचार में मूलगुणों के साथ उत्तरगुण भी मुनि के लिए निर्धारित किये गये हैं।४ त्रिगुप्ति, दशधर्म, द्वादशानुप्रेक्षा, बाईसपरीषहजय, पंचविधचारित्र, बारहतप और ध्यान, इनको उत्तरगुण नाम दिया गया है, क्योंकि इनका विकास मूलगुणों की आधारभूमि पर होता है। श्वेताम्बर-आगमों में इन्हें न तो मूलगुणों के रूप में स्वीकार किया गया है, न ही उत्तरगुणों के रूप में। उनमें पिण्डविशुद्धि आदि सत्तर गुणों को उत्तरगुण कहा गया है (अभिधान राजेन्द्र कोष २/७९१)। इससे सिद्ध है कि श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण माननेवाले यापनीयों के मत में भी त्रिगुप्ति आदि की मूलगुणों या उत्तरगुणों के रूप में मान्यता नहीं है। उनके किसी उपलब्ध ग्रन्थ में भी इनका संकेत नहीं है। यह भी मूलाचार के यापनीयग्रन्थ न होने का एक प्रमाण है।
स्त्रीमुक्ति अमान्य आचेलक्यादि २८ मूलगुणों और तप, परीषहविजय आदि उत्तरगुणों के अनिवार्य विधान से स्पष्ट है कि मूलाचार के अनुसार मोक्षसाधना के योग्य बनने तथा तप, परीषहजय आदि उत्तरगुणों के विकास के लिए 'आचेलक्य' मूलगुण का होना अनिवार्य है। अचेलकता मोक्षमार्गरूपी महल की बुनियाद है और संयतगुणस्थान की आधारशिला। वह स्त्रियों के लिए सम्भव नहीं है, इसलिए सिद्ध है कि मूलाचार स्त्रीमुक्ति-विरोधी परम्परा का ग्रन्थ है।
मूलाचार में स्त्रीमुक्ति-विरोध का दूसरा प्रमाण यह है कि इसमें स्त्री का ऊर्ध्वगमन केवल सोलहवें स्वर्ग तक बतलाया गया है। उससे ऊपर निर्ग्रन्थलिंगधारियों के ही गमन का उल्लेख है। मूलाचार के कर्ता कहते हैं कि असंख्यात वर्ष की आयुवाले मनुष्य और तिर्यंच मिथ्यात्वभाव के कारण ज्योतिष्क देवों में जन्म लेते हैं और तापसों की उत्पत्ति उत्कृष्ट आयुवाले ज्योतिष्कों में होती है। (गा.११७४)। परिव्राजकों का जन्म अधिक से अधिक ब्रह्मस्वर्ग तक और आजीविकों का सहस्रार पर्यन्त होता है। इसके ऊपर नियम से अन्यलिंगियों की उत्पत्ति नहीं होती, केवल निर्ग्रन्थ (दिगम्बरजैन मुनि) और श्रावक अच्युत स्वर्ग तक जन्म लेते हैं। देखें, मूलाचार की यह गाथा
१४. मूलगुणउत्तरगुणे जो मे णाराहिओ पमाएण।
तमहं सव्वं णिंदे पडिक्कमे आगममिस्साणं ॥ ५० ॥ मूलाचार/पू.।
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