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अ०१५/प्र०१
मूलाचार / २०१ या स्थितिकल्प घटित हो जाता है। इस मान्यता का निरसन मूलाचार (उत्त.) की निम्नलिखित गाथा से हो जाता है
ते सव्वगंथमुक्का अममा अपरिग्गहा जहाजादा।
वोसट्टचत्तदेहा जिणवरधम्मं समं णेति॥ ७८३॥ अनुवाद-"वे सकलपरिग्रहमुक्त, ममत्वरहित, अपरिग्रही, यथाजातरूपधारी एवं शरीर-संस्कारत्यागी मुनि जिनवर के धर्म को साथ ले जाते हैं।"
यहाँ यथाजात (जहाजादा) शब्द से स्पष्ट कर दिया गया है कि जन्म के समय बालक का जैसा नग्नरूप होता है, वैसा ही नग्नरूपधारी (सर्वांगनिर्वस्त्र) होना अचेलक या निर्ग्रन्थ होने का अभिप्राय है। अतः 'आचेलक्य' शब्द से अल्पचेलत्व अर्थ ग्रहण नहीं किया जा सकता। जहाजादा शब्द से भी सूचित होता है कि मूलाचार के कर्ता पर आचार्य कुन्दकुन्द के जधजादरूवधरो (प्र.सा.३/४) तथा जधजादरूवजादं (प्र.सा. ३/५) के प्रयोग का प्रभाव है।
मूलाचार (उत्त.) की निम्नलिखित गाथा में साधुओं के लिए प्रयुक्त निरम्बर शब्द भी 'अचेलक' शब्द से 'अल्पचेल' अर्थ ग्रहण करने की संभावना को निरस्त कर देता है
उवधिभरविप्पमुक्का वोसटुंगा णिरंबरा धीरा।
णिक्किंचण परिसुद्धा साधू सिद्धिं विमग्गंति॥ ७९८॥ अनुवाद-"उपधि के भार से मुक्त, शरीरसंस्कार से रहित, निर्वस्त्र, धीर, अकिंचन और परिशुद्ध साधु सिद्धि की खोज करते हैं।"
यहाँ 'निरम्बर' शब्द में प्रयुक्त 'निर्' अव्यय 'अचेलक' शब्द में प्रयुक्त 'अ' (नञ्) अव्यय के समान ईषत् (अल्प) अर्थ का वाचक नहीं है, अपितु 'सर्वथा अलग हो जाने' का वाचक है। यथा-"निर्गतम् अम्बरं यस्मात् सः।" अतः निरम्बर शब्द से अल्पाम्बर (अल्पचेल) अर्थ ग्रहण नहीं किया जा सकता, अपितु सर्वथा अम्बररहित अर्थ ही ग्रहण किया जा सकता है। इस प्रकार 'निरम्बर' शब्द सिद्ध कर देता है कि 'आचेलक्य' मूलगुण या स्थितिकल्प श्वेताम्बर-यापनीय-परम्पराओं के सचेल अपवादलिंगधारी साधु पर घटित नहीं होता अतः 'मूलाचार' की दृष्टि में अपवादलिंगधारी की मुक्ति असम्भव है। १.५. आचेलक्य चारित्र का साधन
मूलाचार (उत्त.) में आचार्य वट्टकेर का कथन है कि आचेलक्य (नग्नत्व), केशलोच, शरीर का संस्कार न करना और पिच्छिकाग्रहण यह चार प्रकार का लिंग
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