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१८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१४ / प्र०२ तात्पर्य यह कि दिगम्बरग्रन्थों में भी पुरुषवेदादि को प्रशस्तप्रकृति कहा गया है। अतः जैसे उक्त प्रकृतियों को पुण्यप्रकृति मानने पर भी वीरसेन स्वामी, केशववर्णी तथा पं० आशाधर जी यापनीय सिद्ध नहीं होते, वैसे ही अपराजितसूरि भी यापनीय सिद्ध नहीं होते। तथा जैसे तत्त्वार्थाधिगमभाष्य-कार उमास्वाति उन्हें पुण्यप्रकृति कहने से यापनीय नहीं कहला सकते, वैसे ही अपराजितसूरि भी नहीं कहला सकते। इसके अतिरिक्त विजयोदयाटीका में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि यापनीय-मान्यताओं का निषेध किया गया है, जो अपराजितसूरि के यापनीय न होकर दिगम्बर होने के अखण्ड्य प्रमाण हैं। इस प्रकार पुरुषवेदादि को पुण्यप्रकृति कहने का धर्म यापनीय-ग्रन्थकार होने का लक्षण या हेतु नहीं है। अतः अपराजितसूरि का दिगम्बराचार्य होना निर्विवाद है।
प्रथम शुक्लध्यान दिगम्बरमतानुकूल यापनीयपक्ष
"(विजयोदयाटीका में) शुक्लध्यान के प्रथम भेद पृथक्त्ववितर्क-सवीचार ध्यान का अधिकारी उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती को माना गया है। सर्वार्थसिद्धिसम्मत-पाठवाले तत्त्वार्थसूत्र में आठवें गुणस्थान से ही पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान को माना गया है।" (या. औ. उ. सा./ पृ.१३५) । अर्थात् उपशान्तमोहगुणस्थानवाले को ही प्रथम शुक्लध्यान का अधिकारी मानना यापनीयमतावलम्बी होने का लक्षण है। दिगम्बरपक्ष
प्रथम तो यापनीयमत में गुणस्थान-सिद्धान्त मान्य ही नहीं है। दूसरे, उपशान्तमोहगुणस्थानवाले को उक्त शुक्लध्यान का स्वामी मानना यापनीय होने का लक्षण है, यह निर्णय किस प्रमाण के आधार पर किया गया, यह बुद्धिगम्य नहीं है। जो यापनीय अन्यलिंगियों और गृहस्थों की भी मुक्ति मानते हैं, उनके मत में तो मिथ्यादृष्टिगुणस्थान और संयतासंयत-गुणस्थान में भी चारों शुक्लध्यान हो जाते हैं। उनकी बात का क्या प्रमाण? अस्तु! षट्खंडागम के यशस्वी टीकाकार महान् दिगम्बराचार्य श्री वीरसेन स्वामी ने भी चौथे गुणस्थान से लेकर दसवें (सूक्ष्मसाम्पराय) गुणस्थान पर्यन्त धर्मध्यान की प्रवृत्ति मानी है और उपशान्तकषायगुणस्थान में पृथक्त्ववितर्क-वीचार एवं क्षीणकषायगुणस्थान में एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान बतलाये हैं। यथा
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