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अ०१४ / प्र०२
अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १८७ __ इसी आधार पर श्री केशववर्णी ने भी लिखा है- "द्रव्यपुरुष-भावस्त्रीरूपे प्रमत्तविरते आहारकतदङ्गोपाङ्गनामोदयो नियमेननास्ति। तु-शब्दाद् अशुभवेदोदये मनःपर्ययपरिहार-विशुद्धी अपि न" (जी.त.प्र./ गो.जी./ गा.७१५)। ___अनुवाद-"द्रव्यपुरुष और भावस्त्रीरूप प्रमत्तविरत में आहारकशरीर और आहारकअंगोपांग का उदय नियम से नहीं होता। गाथा में 'तु' (दु) शब्द के प्रयोग से यह सूचित किया गया है कि अशुभवेद (भावस्त्रीवेद और भावनपुंसकवेद) के उदय में मनःपर्ययज्ञान और परिहारविशुद्धसंयम भी नहीं होते।"
षट्खंडागम में कहा गया है कि मनुष्यिनियों में असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं (पु.५ / १, ८, ७५ / पृ. २७८)। इसका कारण बतलाते हुए वीरसेन स्वामी कहते हैं कि अप्रशस्तवेद के उदय के साथ दर्शनमोहनीय का क्षपण करनेवाले जीव बहुत नहीं पाये जाते"अप्पसत्थवेदोदएण दंसणमोहणीयं खवेंतजीवाणं बहूणमणुवलंभा" (धवला / ष.खं/ पु.५ / १, ८, ७५ / पृ.२७८)।
इस प्रकार दिगम्बरग्रन्थों में भी भावपुरुषवेद को प्रशस्तवेद एवं भावस्त्रीवेद और भाव-नपुंसकवेद को अप्रशस्तवेद कहा गया है। किन्तु भावपुरुषवेद के उदय में उपर्युक्त शुभकार्य तभी घटित होते हैं, जब भावपुरुषवेद द्रव्यपुरुषवेद के साथ होता है। द्रव्यस्त्रीवेद
और द्रव्यनपुंसकवेद के साथ भावपुरुषवेद के होने पर आहारकऋद्धि, मनःपर्ययज्ञान, परिहार-विशुद्धिसंयम आदि की प्राप्ति नहीं होती। इससे सिद्ध होता है द्रव्यपुरुषवेद भावपुरुषवेद से भी अधिक प्रशस्त है। इसकी अधिक प्रशस्तता का दूसरा प्रमाण यह है कि मनुष्यगति में द्रव्यपुरुषवेद के होने पर ही मोक्ष होता है। यदि भावपुरुषवेद का उदय हो, किन्तु उसके साथ द्रव्यपुरुषवेद न हो, अपितु द्रव्यस्त्रीवेद या द्रव्यनपुंसकवेद हो तो मोक्ष संभव नहीं है। भगवती-आराधना में संयम का साधन होने से आगामी भव में द्रव्यपुरुषवेद की आकांक्षा करने को प्रशस्तनिदान कहा गया है
संजमहेदुं पुरिसत्त-सत्त-बलविरिय-संघडण-बुद्धी।
सावअ-बंधु-कुलादीणि णिदाणं होदि हु पसत्थं ॥ १२१०॥ इससे उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है कि द्रव्यपुरुषवेद भावपुरुषवेद से भी अधिक प्रशस्त है।
इसके विपरीत द्रव्यस्त्रीवेद और द्रव्यनपुंसकवेद अप्रशस्तवेद हैं, क्योंकि वे मोक्षमार्ग के प्रतिकूल हैं। इनमें भी द्रव्यनपुंसकवेद द्रव्यस्त्रीवेद से अप्रशस्ततर है, क्योंकि द्रव्यमानुषी तो उपचार-महाव्रतों के योग्य होती है, किन्तु द्रव्यनपुंसक मनुष्य नहीं होता। , वह अणुव्रतों का ही पात्र होता है।
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