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अ० १४ / प्र० २
अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १८५ भिक्षा के लिए सात घरों से अधिक में न जाने के अभिग्रह का उल्लेख दिगम्बरग्रन्थ वरांगचरित में भी इस प्रकार मिलता है
एकान्तभिक्षां प्रविलभ्य याता भिक्षात्रयेण प्रतिमानिवृत्ताः । गृहेषु सप्तस्ववगुह्य केचिद् ग्रासार्धतोऽर्धोदरिणः प्रयाताः ॥ ३० / ५४ ॥ अनुवाद - " कुछ मुनि केवल एक अन्न का आहार ग्रहण कर लौट आते थे। कुछ केवल तीन वस्तुओं का आहार लेकर चले आते थे। कुछ अधिक से अधिक सात घरों में ही जाने का नियम ले लेते थे । अर्थात् लगातार सात घरों में भिक्षा के अनुकूल विधि न मिलने पर आठवें घर में नहीं जाऊँगा, ऐसा अभिग्रह (प्रतिज्ञा ) कर लेते थे । तथा कुछ मुनि जितने ग्रासों से पेट भरता है, उनसे आधे ग्रास लेने का नियम लेकर जाते थे और आधा पेट भोजन करके ही लौट आते थे।
यहाँ 'आधा पेट भोजन करके ही लौट आते थे इस कथन से स्पष्ट है कि मुनि भोजन श्रावक के ही घर में करते थे, पात्र में लेकर उपाश्रय में नहीं आते थे, जैसा कि यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखक ने कल्पना की है। वरांगचरित के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण वरांगचरित के अध्याय (२०) में दिये गये हैं । अतः भिक्षा के लिए अधिक से अधिक सात घरों में जाने के अभिग्रह का जो उल्लेख अपराजितसूरि ने किया है, वह दिगम्बरमत के प्रतिकूल नहीं है । तथा क्षपक के स्वयं भिक्षार्थ जाने में असमर्थ होने पर दाता के द्वारा लाये गये आहार को 'स्थितभक्त' मूलगुण का पालन करते हुए ६२ ग्रहण करना भी दिगम्बर जैनमत के विरुद्ध नहीं है । यह कुन्दकुन्द वचनों से भगवती - आराधना के अध्याय में प्रमाणित किया जा चुका है। अतः भिक्षा के लिए सात घरों में जाने का जो अभिप्राय अपराजितसूरि का है, उससे भिन्न अभिप्राय कल्पित कर उन्हें यापनीय सिद्ध करने की चेष्टा की गई है । यतः कल्पित अभिप्राय असत्य है, अतः सिद्ध है कि अपराजितसूरि यापनीय नहीं हैं, अपितु दिगम्बर हैं।
पुरुषवेदादि का पुण्यप्रकृतित्व दिगम्बराचार्यों को भी मान्य
यापनीयपक्ष
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हास्य,
"विजयोदयाटीका में सद्वेद्य, सम्यक्त्व, ,पुरुषवेद, शुभनाम, शुभगोत्र, एवं शुभ आयु को पुण्यप्रकृति कहा गया है । यह कथन दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्यों में उपलब्ध
६२. निर्यापक के समीप में न रहने पर क्षपक अयोग्य पदार्थ का सेवन कर सकता है अथवा बिना खड़े हुए भोजन कर सकता है, जो दोषपूर्ण है - " अयोग्यसेवां कुर्याद् अस्थितभोजनादिकं पार्श्ववर्तिन्यसति कुर्याद्वा ।" वि.टी./ भ.आ./गा.' सेवेज्ज वा अकप्पं' ६७७।
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