________________
१८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१४ / प्र०२ नहीं है, केवल तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में उपलब्ध है, जिसकी आलोचना सिद्धसेन गणी ने की है। इससे यही फलित होता है कि अपराजित यापनीय रहे होंगे। (जै.ध.या.स./पृ.१६०)। दिगम्बरपक्ष
इस विषय में पं० कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य ने भी लिखा है-"(विजयोदयाटीका में) तत्त्वार्थसूत्र से अनेक सूत्र उद्धृत हैं। विद्वान् जानते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र के दो सूत्रपाठ प्रचलित हैं, एक दिगम्बरसम्मत है, दूसरा श्वेताम्बरसम्मत। जितने सूत्र उद्धृत हैं, वे दिगम्बरसम्मत हैं। किन्तु (भगवती-आराधना की) १८२८ वी गाथा की टीका में सातावेदनीय, सम्यत्वप्रकृति, रति, हास्य और पुंवेद को पुण्यप्रकृति कहा है।६३ श्वेताम्बरसम्मत सूत्रपाठ में आठवें अध्याय के अन्त में इसी प्रकार का सूत्र है। किन्तु दिगम्बरपरम्परा में घतिकर्मों की प्रकृतियों को पापप्रकृतियों में ही गिनाया गया है। यहाँ टीकाकार ने सूत्र को तो प्रमाणरूप से उद्धृत नहीं किया है, किन्तु कथन तदनुसार किया है। पं० आशाधर जी ने भी अपनी टीका में विजयोदया के अनुसार ही इन्हें पुण्यप्रकृति लिखा है, यह आश्चर्य ही है। तत्त्वार्थसूत्र की टीका 'सर्वार्थसिद्धि' टीकाकार के सामने थी, यह निर्विवाद है।" (भ.आ./शो.पु./ प्रस्ता./पृ.४०)।
किन्तु सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री ने 'सर्वार्थसिद्धि' के आठवें अध्याय के २५वें सूत्र का विशेषार्थ बतलाते हुए लिखा है कि "वीरसेन स्वामी ने जयधवलाटीका में भी इन्हें (सम्यक्त्वप्रकृति, हास्य, रति और पुरुषवेद को) पुण्यप्रकृतियाँ सिद्ध किया है।" वीरसेन स्वामी ने धवला में भी पुरुषवेद को प्रशस्तवेद कहा है, क्योंकि उसके उदय में प्रमत्तविरत मुनि में आहारकशरीर और आहारकशरीरांगोपांग नामकर्मों का उदय हो सकता है तथा मनःपर्ययज्ञान एवं परिहारविशुद्धि संयम की प्राप्ति भी संभव है। तीर्थंकरप्रकृति का उदय भी उसी मुनि में संभव है, जो भाव से भी पुरुषवेदी होता है। भावस्त्रीवेद और भावनपुंसकवेद के उदय में ये शुभकार्य संभव नहीं हैं। वीरसेन स्वामी लिखते हैं
___ 'आहारकायजोगाणं भण्णमाणे---अस्थि पुरिसवेदो, इत्थि-णंउसयवेदा णत्थि। किं कारणं? अप्पसत्थवेदेहि सह आहाररिद्धी ण उप्पज्जदि त्ति' (धवला / ष.खं./ पु.२/१,१/पृ.६६८)।
अनुवाद-"आहारकाययोगी जीवों के पुरुषवेद होता है, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद नहीं होते, क्योंकि अप्रशस्तवेदों के साथ आहारकऋद्धि उत्पन्न नहीं होती।"
६३. "सद्वेद्यं सम्यक्त्वं रतिहास्यपुंवेदाः शुभे नामगोत्रे शुभं चायुः पुण्यं एतेभ्योऽन्यानि पापानि।"
विजयोदयाटीका / भगवती-आराधना/ गा. 'अणुकंपासुद्धवओगो' १८२८ ।
Jain Education Interational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org