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१८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१४ / प्र०२ से सात से अधिक घरों में प्रवेश करना अथवा एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले में जाना वृत्तिपरिसंख्यान के अतिचार हैं।"
___ यहाँ सात घरों में प्रवेश का अर्थ यह है कि यदि एक घर में जाने पर भिक्षा प्राप्त न हो, तो दूसरे घर में जाना और दूसरे में प्राप्त न हो, तो तीसरे घर में जाना, इस प्रकार अधिक से अधिक सात घरों में जाना, सातवें घर में भी न मिले, तो आठवें में न जाना, वापिस लौट आना। भिक्षा न मिलने पर अथवा मिल जाय तो 'दूसरे साधुओं ने भोजन किया है या नहीं, उन्हें जाकर देख आऊँ' ऐसा सोचकर आठवें घर में जाना अथवा दूसरे मुहल्ले में जाना वृत्तिपरिसंख्यान का अतिचार है।
दूसरे साधु को भोजन कराने की दृष्टि से आठवें घर में जाने का अभिप्राय वहाँ से पात्र में भोजन ले जाकर उपाश्रय में किसी रुग्ण साधु को भोजन कराना नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा करना होता, तो एक घर या दो घर में ही जाकर ऐसा किया जा सकता था। आठवें घर का निषेध न किया गया होता।
__तथा भोजन की याचना का तो स्वयं के लिए भी निषेध किया गया है, तब दूसरे के लिए याचना का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अपराजितसूरि कहते हैं
___ "याच्यामव्यक्तस्वनं वा स्वागमननिवेदनार्थं न कुर्यात्। विद्युदिव स्वां तनुं च दर्शयेत्।---गृहिभिरनुज्ञातस्तिष्ठेत्।" (वि.टी./भ.आ./गा. 'एसणणिक्खे' १२००)।
अनुवाद- "भिक्षा के लिए अपने आने की सूचना देने हेतु याचना या अव्यक्त शब्द नहीं करना चाहिए, बिजली की तरह अपना शरीरमात्र दिखला देना चाहिए। ---गृहस्वामियों के प्रार्थना करने पर ही ठहरना चाहिए।"
हाँ, क्षपक (सल्लेखनारूढ़) यदि स्वयं भिक्षा के लिए जाने में असमर्थ हो, तब आचार्य के संकेत करने पर गृहस्थ स्वयं भोजन लाकर उसे देता है। क्षपक के वृत्तिपरिसंख्यान का वर्णन करते हुए अपराजितसूरि कहते हैं
"आनीतायामपि भिक्षायां इयत एव ग्रासान् गृह्णामि इति वा परिमाणम्।" (वि.टी./भ.आ./ गा.' पाडयणियंसण' २२१)।
अनुवाद-"अथवा दाता के द्वारा लाई गई भिक्षा में से भी इतने ही ग्रास ग्रहण करूँगा, ऐसा परिमाण करना वृत्तिपरिसंख्यान है।"
इस तरह अपराजितसूरि के ही वचन प्रमाणित करते हैं कि सात घरों से भिक्षा लेने का जो अभिप्राय यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखकों ने ग्रहण किया है, वह अपराजितसूरि के अभिप्राय के अनुरूप नहीं है।
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