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१८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१४/प्र०२ "आत्मा की सल्लेखना करनेवाला, धैर्यवान्, महासत्त्वसम्पन्न, परीषहजेता, उत्तमसंहननविशिष्ट मुनि क्रम से धर्मध्यान और शुक्लध्यान को पूर्ण करता हुआ जिस देश में रहता है, उस देश में मुश्किल से प्राप्त होनेवाले आहार को ग्रहण करने का व्रत लेता है, जैसे एक मास में 'ऐसा' आहार मिला, तो भोजन करूँगा, अन्यथा नहीं। उस मास के अन्तिम दिन वह प्रतिमायोग धारण करता है। यह एक भिक्षुप्रतिमा है। इस प्रकार पूर्वोक्त आहार से सौगुने उत्कृष्ट अन्य-अन्य भोजनसम्बन्धी नियम लेता है। ये नियम क्रमशः दो, तीन, चार, पाँच, छह और सात मास का अन्तर लेकर ग्रहण किये जाते हैं, जैसे दो मास या तीन मास में 'ऐसा' आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। सर्वत्र नियम के अन्तिम दिन प्रतिमायोग ग्रहण करता है। ये सात भिक्षप्रतिमाएँ हैं। पुनः पूर्व आहार से सौगुना उत्कृष्ट दुर्लभ अन्य-अन्य आहार का नियम सातसात दिन का अन्तर लेकर तीन बार ग्रहण करता है। अर्थात् सात दिन में 'ऐसा' आहार मिला तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। ये तीन भिक्षुप्रतिमाएँ हैं। फिर रातदिन प्रतिमायोग में स्थित रहकर बाद में रात्रि-प्रतिमायोग धारण करता है। ये दो भिक्षुप्रतिमाएँ हैं। इनको धारण करने पर पहले अवधि-मनःपर्ययज्ञान को प्राप्त करता है, बाद में सूर्योदय होने पर केवलज्ञान प्राप्त करता है। इस तरह बारह भिक्षु-प्रतिमायोगों में स्थित होने के बाद रात्रिप्रतिमायोग धारण करता है।" ६१
ये सल्लेखनाधारी मुनि के द्वारा आहारप्राप्ति को दुर्लभ बनाते हुए प्रतिमायोग धारण करने की विधियाँ हैं, जो दिगम्बरमत के सर्वथा अनुकूल हैं। किन्तु इनका वर्णन तो अपराजित सूरि ने अपनी टीका में किया ही नहीं है। उन्होंने तो मूलग्रन्थ की गाथा का अनुवाद मात्र किया है। अतः यह कैसे मान लिया गया कि अपराजितसूरि ने उनका वर्णन किया है? यह तो सर्वथा असत्य है। आश्चर्य है कि 'यापनीय और उनका साहित्य' की लेखिका तथा 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' के लेखक ने एक मनगढंत हेतु के आधार पर अपराजितसूरि को यापनीय सम्प्रदाय का आचार्य घोषित कर दिया।
उनका यह कथन भी असत्य है कि उक्त प्रतिमाओं का उल्लेख किसी दिगम्बरग्रन्थ में नहीं मिलता। भगवती-आराधना में तो मिलता है। वह दिगम्बरग्रन्थ ही है, यह पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है। भगवती-आराधना प्रथमशती ई० का ग्रन्थ है। अतः हो सकता है कि ये बारह भिक्षुप्रतिमाएँ इसी ग्रन्थ से श्वेताम्बरसाहित्य में पहुँची हों, जैसे 'आचेलक्कुद्देसिय' आदि गाथाएँ पहुँची हैं। उक्त प्रतिमाओं का कथन दिगम्बरग्रन्थ
६१. भगवती आराधना (फलटन एवं जै.सं.सं.सं. शोलापुर)/ सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी
शास्त्री : विशेषार्थ / गा. 'सदि आउगे' २५१/ पृ. २५८ ।
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