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१९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१५ / प्र०१
मूलाचार संग्रहग्रन्थ नहीं पं० परमानन्द जी शास्त्री ३ एवं डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने मूलाचार को एक संग्रहग्रन्थ माना है। डॉ० नेमिचन्द्र जी शास्त्री, ज्योतिषाचार्य ने इससे असहमति व्यक्त की है। वे लिखते हैं
"डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने अपनी प्रवचनसार की महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना (पृ.२५) में मूलाचार को दक्षिण भारत की पाण्डुलिपियों के आधार पर कुन्दकुन्दकृत लिखा है। पर प्राच्य विद्या सम्मेलन, अलीगढ़ (उ.प्र.) में पठित एक निबन्ध में मूलाचार को संग्रहग्रन्थ सिद्ध किया है, और इसके संग्रहकर्ता सम्भवतः वट्टकेर थे, यह अनुमान लगाया है।" (ती.म.आ.प./ खं.२/ पृ.११८)
"वट्टकेर के सम्बन्ध में अभी तक पट्टावलि, गुर्वावलि, अभिलेख एवं प्रशस्तियों में सामग्री उपलब्ध नहीं हो सकी है। अतः निश्चित रूप से उनके समय के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। मूलाचार की विषयवस्तु के अध्ययन से इतना स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ प्राचीन है। इससे मिलती-जुलती अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर-प्राचीनसूत्रग्रन्थ दशवैकालिक में भी उपलब्ध हैं। प्रत्येक प्रकरण में आदि में मंगलस्तवन के अंकित रहने से इसके संग्रहग्रन्थ होने का अनुमान किया जाता है, पर हमारी नम्र सम्मति में यह संग्रहग्रन्थ न होकर स्वतन्त्रग्रन्थ है। प्रत्येक प्रकरण के आदि अथवा ग्रन्थ के आदि, मध्य और अन्त में मंगलस्तवन लिखने की प्रथा प्राचीन समय में स्वतन्त्र रूप से लिखित ग्रन्थों में वर्तमान थी। तिलोयपण्णत्ति में इस प्रथा को देखा जा सकता है। गोम्मटसार के आदि, मध्य और अन्त में भी मंगलस्तवन निबद्ध है।" (वही / पृ.११९)।
"मूलाचार का ग्रथन एक निश्चित रूपरेखा के आधार पर हुआ है। अतः उसके सभी प्रकरण आपस में एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं। यदि यह संकलन होता, तो इसके प्रकरणों में आद्यन्त एकरूपता एवं प्रौढता का निर्वाह सम्भव नहीं था। अत एव आचार्य वट्टकेर का समय कुन्दकुन्द के समकालीन या उनसे कुछ ही पश्चाद्वर्ती होना चाहिए।" (वही / पृ.१२०)।
कर्मसाहित्य के गहन अध्येता पं० बालचन्द्र जी शास्त्री के निम्नलिखित निरूपण से भी इसी बात का समर्थन होता है कि मूलाचार एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है-"वट्टकेराचार्य (सम्भवतः ई० द्वितीय शताब्दी)-विरचित 'मूलाचार' एक साध्वाचार-विषयक महत्त्वपूर्ण प्राचीन ग्रन्थ है। इसमें मुनियों के आचार की विस्तार से प्ररूपणा की गई है। वह
३. 'अनेकान्त' ( मासिक )/१ मार्च, १९३९ ।
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