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१९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१५/प्र०१ "ग्रन्थकर्ता आचार्य वट्टकेर के व्यक्तित्व, कृतित्व, स्थान, समयादि के विषय में स्वयं मूलाचार में, वसुनन्दिकृत आचारवृत्ति में, अथवा अन्यत्र भी कहीं कोई ज्ञातव्य प्राप्त नहीं होते। पं० जुगलकिशोर मुख्तार के अनुसार, मूलाचार की कितनी ही ऐसी पुरानी हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हैं, जिनमें ग्रन्थकर्ता का नाम 'कुन्दकुन्दाचार्य' दिया हुआ है। डॉ० ए० एन० उपाध्ये को भी कर्नाटक आदि दक्षिण भारत में ऐसी कई प्रतियाँ देखने में आयी थीं, जो कि उन्हें सर्वथा असली (नकली या जाली नहीं) प्रतीत हुईं। माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला बम्बई से मूलाचार की जो सटीक प्रति दो भागों में प्रकाशित हुई थी, उसकी अन्त्य पुष्पिका-"इति मूलाचारविवृतौ द्वादशोऽध्यायः। कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत-मूलाचाराख्यविवृतिः। कृतिरियं वसुनन्दिनः श्रमणस्य" में भी मूलाचार को कुन्दकुन्द-प्रणीत घोषित किया गया है। इसके अतिरिक्त भाषा-शैली, भाव आदि की दृष्टि से भी कुन्दकुन्द-साहित्य के साथ मूलाचार का अद्भुत साम्य लक्ष्य करके मुख्तार साहब की धारणा हुई कि वट्टकेराचार्य या वट्टेरकाचार्य संस्कृत शब्द 'प्रवर्तकाचार्य' का प्राकृत रूप हो सकता है। तथा वह आचार्य कुन्दकुन्द की एक उपयुक्त उपाधि या विरुद रहा हो सकता है, फलतः मूलाचार कुन्दकुन्द की ही कृति है। हमारी भी ऐसी ही धारणा रही। किन्तु पं० नाथूराम प्रेमी मुख्तार सा० के मत से सहमत नहीं हुए और उन्होंने स्थानविशेष के नाम से प्रसिद्ध 'वट्टकेर' नामक किसी अज्ञात कन्नडिग दिगम्बराचार्य को इस ग्रन्थ का कर्ता अनमानित किया। इस प्रकार मूलाचार का कृतित्व विवाद का विषय बन गया। विद्वानों का एक वर्ग उसे कुन्दकुन्द-प्रणीत कहता है, तो एक दूसरा वर्ग उसे वट्टकेर नामक एक स्वतन्त्र आचार्य की कृति मान्य करता है, और ऐसे भी अनेक विद्वान् हैं, जो जब तक कोई पुष्ट प्रमाण प्राप्त न हो जाय, इस विषय को अनिर्णीत मानते हैं तथा प्रायः तटस्थ हैं। कुछ-एक विद्वानों का कहना है कि मूलाचार एक स्वतन्त्र ग्रन्थ न होकर मात्र एक संग्रहग्रन्थ हैं। डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने इस अनुमान का सन्तोषजनकरूप में निरसन करते हए कहा है कि मलाचार का ग्रन्थन एक निश्चित रूपरेखा के आधार पर हआ है, अतः इसके सभी प्रकरण आपस में एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं। यदि यह संकलन होता, तो उसके प्रकरणों में आद्यन्त एकरूपता एवं प्रौढ़ता का निर्वाह सम्भव नहीं था।
"सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री प्रभृति सभी प्रौढ़शास्त्रज्ञ विद्वानों को मूलाचार की सर्वोपरि प्रामाणिकता एवं प्राचीनता में कोई सन्देह नहीं है, और उनका कहना है कि उसे यदि स्वयं कुन्दकुन्दप्रणीत नहीं भी माना जाय, तो भी वह कुन्दकन्दकालीन (८ ई० पू०-४४ ई०) अर्थात् ईसवी सन् के प्रारम्भकाल की रचना तो प्रतीत होती ही है। शिवार्यकृत 'भगवती-आराधना' का भी वे प्रायः वही रचनाकाल अनुमान करते
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