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अ० १५ / प्र०१
मूलाचार / १९५ हैं। उनके अनुसार यद्यपि भगवती-आराधना एवं मूलाचार की अनेक गाथाओं में साम्य है, तथापि उससे यह मानना उचित प्रतीत नहीं होता है कि एक-दूसरे का परवर्ती है, अपितु यह मानना अधिक सम्भव होगा कि अनेक प्राचीन गाथाएँ परम्परा से अनुस्यूत चली आती थीं और उनका संकलन या उपयोग कुन्दकुन्द, वट्टकेर, शिवार्य आदि प्राचीन प्रारम्भिक ग्रन्थकारों ने अपने-अपने ढंग से किया। इस प्रसंग में यह तथ्य भी ध्यातव्य है कि कुन्दकुन्दाचार्य के ज्येष्ठ समकालीन लोहाचार्य (१४ ई० पू०३० ई०) श्रुतधराचार्यों की परम्परा में अन्तिम आचारांगधारी थे। संभव है कि उन्हीं से आचारांग का ज्ञान प्राप्त करके उनके वट्टकेर नामक किसी शिष्य ने, अथवा मूलसंघाग्रणी आचार्य कुन्दकुन्द ने मूलसंघाम्नाय के मुनियों के हितार्थ द्वादशांगी के उक्त प्रथम अंग का बारह अधिकारों में उपसंहार करके उसे मूलाचार का रूप दिया हो।" १
आदरणीय सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री, पं० जगन्मोहनलाल जी शास्त्री एवं डॉ० पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने मूलाचार के विषय में अपना मन्तव्य इन शब्दों में व्यक्त किया है-"मूलसंघ के साधुओं का जैसा आचरण होना चाहिए, उसका वर्णन मूलाचार में वट्टकेर आचार्य ने किया है। मूल नाम प्रधान का है, साधुओं का प्रमुख आचार कैसा होना चाहिए , इसका दिग्दर्शन ग्रन्थकार ने मूलाचार में किया है। अथवा (मूल का अर्थ) मूलसंघ भी होता है। मूलसंघ में दीक्षित साधु का आचार कैसा होना चाहिए , इसका दिग्दर्शन ग्रन्थकार ने मूलाचार में किया है। मूलाचार जैन साधुओं के आचारविषय का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथा प्रामाणिक ग्रन्थ है। यह वर्तमान में दिगम्बर साधुओं का आचारांगसूत्र समझा जाता है। इसकी कितनी ही गाथाएँ उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने अपने-अपने ग्रन्थों में उद्धृत ही नहीं की हैं, अपितु उन्हें अपनेअपने ग्रन्थों का प्रकरणानुरूप अंग बना लिया है। दिगम्बर जैन वाङ्मय में मुनियों के आचार का 'सांगोपांग वर्णन करनेवाला यह प्रथम ग्रन्थ है। इसके बाद मूलाराधना, आचारसार, चारित्रसार, मूलाचारप्रदीप तथा अनगारधर्मामृत आदि जो ग्रन्थ रचे गये हैं, उन सबका मूलाधार मूलाचार ही है। यह न केवल चारित्रविषयक ग्रन्थ है, अपितु ज्ञान-ध्यान तथा तप में अनुरक्त रहनेवाले साधुओं की ज्ञानवृद्धि में सहायक अनेक विषय इसमें प्रतिपादित किये गये हैं। इसका पर्याप्ति-अधिकार करणानुयोग-सम्बन्धी । अनेक विषयों से परिपूर्ण है।"२
१. मूलाचार / पूर्वार्ध । भारतीय ज्ञानपीठ / प्रधानसम्पादकीय / पृ. ५-६। २. वही/सम्पादकीय/ पृ.९।
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