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९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३ / प्र०२ डॉ० सागरमल जी ने भी लिखा है कि "भगवती आराधना में विजहना (मृतक शरीर को जंगल में रख देने) की जो चर्चा है वह प्रकीर्णकों में तो नहीं है, किन्तु भाष्य और चूर्णि में है।" (जै.ध. या.स./ पृ.१३०)।
माननीय पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री भी विजहनाविधि के औचित्य को दर्शाते हुए लिखते हैं-"उस समय का विचार कीजिए जब बड़े-बड़े साधुसंघ वनों में विचरते थे। उस समय किसी साधु का मरण हो जाने पर वन में शव को रख देने के सिवाय दूसरा मार्ग क्या था? वे न जला सकते थे, न जलाने का प्रबंध कर सकते थे। अतः उसका सम्बन्ध किसी सम्प्रदाय-विशेष से नहीं है। यह तो सामयिक परिस्थिति और प्रचलन पर ही निर्भर है।" (भ.आ./शोलापुर/ प्रस्ता./पृ.३६)।
'विजहना' के आधार पर भगवती-आराधना को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का 'प्रेमी' जी का तर्क उनके ही पूर्ववचनों से खंडित हो जाता है। और श्वेताम्बरग्रंथों में भी विजहना-विधि का उल्लेख है, इससे सिद्ध होता है कि यह संघभेद से पूर्व की विधि है, जो संघविभाजन के बाद दोनों सम्प्रदायों में कुछ समय तक चलती रही। और मेरा ख्याल है कि यह विधि प्राचीनकाल में अन्य सम्प्रदायों में भी प्रचलित रही होगी। अतः यह एक सामान्य प्रथा थी, कम से कम दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में तो इसके प्रमाण मिलते ही हैं। अतः यह दिगम्बरों में नहीं थी, केवल श्वेताम्बरों और यापनीयों में थी, ऐसा तर्क कर भगवती-आराधना को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयास सत्य का अपलाप मात्र है। हाँ, यदि विजहनाविधि यापनीयसम्प्रदाय की ही विशिष्टता होती, तो भगवती-आराधना में उसका उल्लेख होने से कहा जा सकता था कि वह यापनीयसम्प्रदाय का ग्रन्थ है। किन्तु प्रेमी जी ने इसका कोई प्रमाण नहीं दिया कि विजहनाविधि यापनीयसम्प्रदाय की ही विशिष्टविधि थी। प्रमाण है भी नहीं। अतः बिना प्रमाण के उसे यापनीयों की विशिष्टविधि मान लेना इतिहासनिर्धारण की वस्तुनिष्ठ पद्धति नहीं है।
विक्रम की १५वीं शताब्दी (१४४०-१५३०) में हुए अपभ्रंश-भाषा के दिगम्बर जैन महाकवि रइधू ने अपने 'भद्रबाहुचरित्र' (भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त-कथानक) नामक काव्य में लिखा है कि जब श्रुतकेवली भद्रबाहु द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष की आशंका से अपने शिष्यों के साथ दक्षिणापथ को जा रहे थे, तब चलते-चलते एक अटवी में ठहरे। वहाँ आकाशवाणी ने घोषणा की, कि उनका समाधिमरण उसी अटवी में होगा। तब उन्होंने अपने शिष्य विशाखनन्दी के नेतृत्व में समस्त संघ को दक्षिण की
ओर विसर्जित कर दिया तथा वे वहीं रह गये। मुनि चन्द्रगुप्त भी गुरु की सेवा के लिए वहाँ रुक गये। कुछ समय बाद श्रुतकेवली भद्रबाहु ने धर्मध्यान करते हुए एक
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