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१४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० १४ / प्र०
ख- अपराजितसूरि ने मुनि के द्वारा धारण किये जाने पर उसके लिए निन्द का कारण बननेवाले सपरिग्रह लिंग को अपवादलिंग कहा है । २६ इससे सिद्ध हो है कि उनके मत से मुनि का लिंग अपवादलिंग नहीं है, अपितु श्रावक का लिं अपवादलिंग है।
ग- अपराजितसूरि ने कहा है कि जब अपवादलिंगधारी अपने द्वारा अपवादलिं धारण किये जाने की निन्दा-गर्दा करते हुए समस्त परिग्रह का त्याग कर देता है। तब वह भी शुद्ध (मुक्त) हो जाता है। २७ इससे भी सिद्ध होता है कि वे अपवादलिं को मुनि का लिंग नहीं मानते, अपितु श्रावक का लिंग मानते हैं। यदि वे उसे मु का लिंग मानते, तो अपवादलिंग ( समस्त परिग्रह) का त्याग किये बिना ही मुनि शुद्ध (मुक्त) होने का कथन करते ।
घ - अपराजितसूरि का कथन है कि अचेललिंग धारण करने पर ही मुनि गृहस् से भिन्न दिखता है- " अचेलतादिकं शरीरधर्मो लिङ्गं - - - गृहित्वात् पृथग्भावो दर्शित भवति ।" (वि.टी./गा.' जत्तासाधण' ८१ / पृ.११६ - ११७) । यह वचन भी सिद्ध करता कि अपराजितसूरि के मतानुसार सचेल अपवादलिंग गृहस्थों का ही लिंग है।
१.३. परिग्रहधारी यति ( संयत ) नहीं— श्रीमती पटोरिया लिखती हैं " परिग्रहत्याग मुनि का उत्सर्गलिंग हैं, अतः परिग्रहधारण यति का ही अपवादलिं होगा ।" (या. औ. उ. सा. / पृ. १२८) । यह अटकल प्रत्यक्षप्रमाण के विरुद्ध है। शिवा और अपराजित सूरि के ये वचन पूर्व में अनेकत्र उद्धृत किये जा चुके हैं कि वस्त्रादि समस्त-परिग्रह के त्याग के बिना कोई भी पुरुष मुनि ( संयत ) नहीं होता । अतः उन अनुसार परिग्रह-धारण मुनि का अपवादलिंग हो ही नहीं सकता । इसीलिए उन्होंने का भी परिग्रहधारण को मुनि का अपवादलिंग नहीं बतलाया ।
श्रीमती पटोरिया आगे कहती हैं- " परिग्रहधारण यति का ही अपवादलिंग होग गृहस्थ तो परिग्रही होता ही है । " ( वही / पृ. १२८ ) इस कथन से उन्होंने यति औ गृहस्थ के बीच का भेद ही समाप्त कर दिया है। जब दोनों परिग्रही हैं, तब दोन या तो यति हैं या दोनों गृहस्थ हैं, इसलिए दोनों के लिंग अपवादलिंग हैं। यह भेदविल २६.‘यतीनामपवादकारणत्वात् परिग्रहोऽपवादः । अपवादो यस्य विद्यत इत्यपवादिकं परिग्रहसहि लिङ्गमस्येत्यपवादिकलिङ्गं भवति ।" विजयोदयाटीका / गा. 'उस्सग्गियलिंग' ७६ । २७.‘“ अपवादलिङ्गस्थोऽपि --- कर्ममलापायेन शुद्धयति --- परिग्रहं परित्यजन् योगत्रयेण । -- सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तेर्मार्गे मया तु पातकेन वस्त्रपात्रादिकः परिग्रहः परीषहभीरुणा गृही इत्यन्तः सन्तापो निन्दा, गर्हा परेषामेवं कथनं, ताभ्यां युक्तः निन्दागर्हाक्रियापरिणत इति यावत् । विजयोदयाटीका / गा.' अववादियलिंगकदो' ८६ / पृ.१२२ ।
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