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१५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१४/प्र०२ __ अनुवाद-"जो औत्सर्गिकलिंग में स्थित है, उसे भक्तप्रत्याख्यान (सल्लेखना) के समय पूर्वगृहीत औत्सर्गिकलिंग ही धारण करना चाहिए। अपवादिकलिंगधारी को भी भक्तप्रत्याख्यान के समय औत्सर्गिक लिंग ही ग्रहण करना चाहिए, यदि उसका लिंग (पुरुषचिह्न) प्रशस्त हो अर्थात् चर्मरहितता, अतिदीर्घता, स्थूलता, बार-बार उत्थानशीलता आदि दोषों से रहित हो। यहाँ 'लिंग' शब्द से पुरुषचिह्न ग्रहण किया गया है। उससे दोनों अण्डकोषों का भी ग्रहण होता है। अर्थात् वे भी प्रशस्त हों, अतिलम्बमानता आदि दोषों से रहित हों।
यहाँ प्रशस्तलिंगवाले को भी अपवादलिंगधारी बतलाया गया है।
अपराजितसूरि आगे कहते हैं-"अपवादलिङ्गस्थानां प्रशस्तलिङ्गानां सर्वेषामेव किमौत्सर्गिकलिङ्गतेत्यस्यामारेकायामाह 'आवसधे वा' निवासस्थाने अप्रायोग्ये अविविक्ते महर्द्धिकः ह्रीमान् लज्जावान् तस्यापि भवेत् आपवादिकं लिङ्गं (मिथ्यादृष्टौ स्वजनो वा) (अथवा यदि) स्वजनो बन्धुवर्गो (मिथ्यादृष्टिः) भवेत्। आपवादिकलिङ्ग सचेललिङ्गम्।" (वि.टी. / गा. आवसधे वा' ७८)।
अनुवाद-"क्या प्रशस्तलिंगवाले सभी अपवादलिंगधारियों को भक्तप्रत्याख्यान के समय औत्सर्गिकलिंग ग्रहण करना चाहिए? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि जो अपवादलिंगधारी महासम्पत्तिशाली हो, लज्जालु हो अथवा जिसके परिवारजन मिथ्यादृष्टि (विधर्मी) हों, उसे सार्वजनिकस्थान में संस्तरारूढ़ होने पर अपवादलिंग में ही रहना चाहिए। सचेललिंग को अपवादलिंग कहते हैं।
इस कथन में भी प्रशस्तलिंगवालों को अपवादलिंगधारी बतलाया गया है। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि भगवती-आराधना और उसकी विजयोदयाटीका में प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के लिंगवाले सवस्त्र पुरुषों को अपवादलिंगधारी कहा गया है। अतः पूर्वोक्त यापनीय-पक्षधर ग्रन्थलेखक का यह कथन सत्य नहीं है कि मूलग्रन्थ और टीका में अप्रशस्तलिंगादिवाले मुनियों के सचेललिंग को अपवादलिंग कहा गया है। यतः प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के लिंगवाले (पुरुषचिह्नवाले) सवस्त्र पुरुष अपवादलिंगधारी कहे गये हैं. अतः सभी सवस्त्र परुषों का अपवादलिंगधारी कहा जाना सिद्ध होता है। सभी सवस्त्र पुरुषों का अर्थ है सभी गृहस्थ। इसकी पुष्टि इस तथ्य से भी होता है कि भगवती-आराधना में प्रशस्त तथा अप्रशस्त दोनों प्रकार के लिंगवाले अपवादलिंगधारियों में मुनि का उल्लेख कहीं भी नहीं है तथा उसकी 'ण य होदि संजदो' (१११८) इस गाथा एवं इसकी टीका में वस्त्रादिपरिग्रहधारी के मुनि (संयत) होने का निषेध किया गया है। ये इस बात के ज्वलन्त प्रमाण हैं कि भगवती-आराधना और उसकी टीका में श्रावक के ही लिंग को अपवादलिंग संज्ञा दी गयी है।
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