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१६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१४ / प्र०२ अनुवाद-"ये गाथाएँ उत्तराध्ययन में कही गयी हैं। केशी गौतम से प्रश्न करते हैं-"वर्धमान भगवान् ने अचेलकधर्म का उपदेश दिया है और भगवान् पार्श्वनाथ ने सान्तरोत्तर (सचेल) धर्म की देशना की थी। एक ही धर्म के अनुयायियों में दो प्रकार के लिंग की कल्पना क्यों की गयी, मेरा मन इस संशय में पड़ा हुआ है।"
"इस कथन से सिद्ध होता है कि अन्तिम तीर्थंकर ने भी अचेलधर्म ही प्रवर्तित किया था।"
अपराजितसूरि आगे दशवैकालिकसूत्र की निम्नलिखित गाथा को उद्धृत कर मुनि के लिए अचेलधर्म के ही विधान की पुष्टि करते हैं
णग्गस्स य मुंडस्स य दीहलोमणखस्स य। ।
मेहुणादो विरत्तस्स किं विभूसा करिस्सदि॥ "इति दशवकालिकायामुक्तं। एवमाचेलक्यं स्थितिकल्पः।" (वि.टी./भ. आ./ गा.४२३/ पृ.३२७)।
अनुवाद-"नग्न, मुण्डित और दीर्घ नख-रोमवाले तथा मैथुन से विरक्त साधु को आभूषणों से क्या प्रयोजन है?"
"यह दशवैकालिका में कहा गया है। इस प्रकार आचेलक्य स्थितिकल्प की प्ररूपणा सम्पन्न हुई।"
ये वचन उद्धृत कर अपराजितसूरि ने इस तथ्य को उद्घाटित किया है कि श्वेताम्बर-आगमों में ऐसे अनेक वचन हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि अचेलत्व ही मोक्ष का मार्ग है। अतः कारणापेक्ष वस्त्रधारण मोक्षसाधक नहीं है, यह स्वतः सिद्ध
२.४. श्वेताम्बर-आगमों में अचेलता के उपदेश का हेतु : वस्त्रग्रहण की सदोषता-जब हम विचार करते हैं कि श्वेताम्बरागमों में भिक्षु-भिक्षुणियों को कारणापेक्ष वस्त्रधारण की अनुमति देते हुए भी अचेलता आवश्यक क्यों मानी गयी है, तब यही सिद्ध होता है कि सचेलता अठारह प्रकार के दोषों का हेतु होने से मुक्ति का मार्ग नहीं है। यदि सचेलता मुक्ति का मार्ग होती, तो 'उत्तराध्ययन' आदि आगमों के पूर्वोक्त उद्धरणों में अचेलता को युक्तिपूर्वक आवश्यक न बतलाया जाता। उनमें अचेलता को इस युक्ति से आवश्यक सिद्ध किया गया है कि सचेल को शीतादिपरीषहों की पीड़ा नहीं होती, जिसे सहना संवर और निर्जरा के लिए अनिवार्य है। परीषहों से बचने के लिए वस्त्रधारण करनेवाला संवर और निर्जरा से वंचित हो जाता है, जो मोक्ष के लिए आवश्यक हैं। अतः वह मोक्ष से भी वंचित हो जाता है।
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