________________
१७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१४/प्र०२ के प्रशिष्य रहे होंगे। अतः वे यापनीय थे। (प्रेमी जी/जै. सा.इ./ प्र.सं./ पृ.५२-५३, ५६)। दिगम्बरपक्ष
अपराजितसूरि ने अपनी विजयोदयाटीका में यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, इससे सिद्ध है कि वे दिगम्बराचार्य थे। अतः जिन चन्द्रनन्दि के वे प्रशिष्य थे, उन्हें यापनीयसम्प्रदाय का चन्द्रनन्दि मानना प्रमाणबाधित है। इस प्रकार यह हेतु भी असत्य है।
दिगम्बर-दशवकालिक श्वेताम्बर-दशवकालिक से भिन्न यापनीयपक्ष
"अपराजितसूरि के यापनीय होने का सबसे स्पष्ट प्रमाण यह है कि उन्होंने दशवैकालिकसूत्र पर स्वयं एक टीका लिखी थी और उसका भी नाम इस टीका के समान 'श्रीविजयोदया' था। इसका जिक्र उन्होंने स्वयं ११९७ नम्बर की गाथा की टीका में किया है-"दशवैकालिकटीकायां श्रीविजयोदयायां प्रपञ्चिता उद्गमादि-दोषा इति नेह प्रतन्यते।" अर्थात् मैंने उद्गमादि-दोषों का वर्णन दशवैकालिक की टीका में किया है, इसलिए यहाँ नहीं किया जा रहा है। दिगम्बर-सम्प्रदाय का कोई आचार्य किसी अन्य सम्प्रदाय के आचारग्रन्थ की टीका लिखेगा, यह एक तरह से अद्भुत सी बात है, जबकि दिगम्बरसम्प्रदाय की दृष्टि में दशवैकालिकादि सूत्र नष्ट हो चुके हैं। वे इस नाम के किसी ग्रन्थ का अस्तित्व मानते ही नहीं हैं।" (प्रेमी जी/ जै.सा.इ./प्र.सं./पृ.४५)। दिगम्बरपक्ष
अपराजितसूरि ने दशवैकालिक पर जो टीका लिखी थी, वह न तो श्वेताम्बरपरम्परा में उपलब्ध है, न यापनीय-परम्परा में और न दिगम्बर-परम्परा में। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जिस दशवैकालिक पर उन्होंने टीका लिखी थी, वह
४८. भगवती-आराधना (मूलाराधना) की 'उग्गमउप्पायणएसणाहिं' इत्यादि गाथा का ११९७
क्रमांक ई. सन् १९३५ में स्वामी देवेन्द्रकीर्ति दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला शोलापुर से प्रकाशित संस्करण में है। किन्तु ई. सन् १९७८, २००४ एवं २००६ में जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर तथा ई. सन् १९९० में हीरालाल खुशालचन्द्र दोशी फलटण द्वारा प्रकाशित संस्करणों में इस गाथा का क्रमांक ११९१ है।
Jain Education Interational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org