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अ०१४/प्र०२
अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १७१ वही था, जो श्वेताम्बरपरम्परा में मान्य है। पं० कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने लिखा है कि "दशवैकालिक की दिगम्बरसम्प्रदाय में भी मान्यता रही है, किन्तु उसका प्राचीनरूप यही था या भिन्न, यह अन्वेषणीय है।" (जै.सा.इ./पू.पी./पृ.७०४)। सुप्रसिद्ध संस्कृत-महाकवि, दिगम्बराचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का भी यह मत था कि दिगम्बरों में दशवैकालिक का पठन-पाठन होता था, यह उनके सुविख्यात शिष्य आचार्य श्री विद्यासागर जी से ज्ञात हुआ है। तथा अपराजितसूरि ने जो यह कहा है कि "मैं उदगमादि दोषों का वर्णन दशवैकालिक की टीका में कर चका हैं. इसलिए भगवतीआराधना की टीका में नहीं किया जा रहा है", इस कथन से सिद्ध होता है कि वह दशवैकालिक उसी परम्परा का ग्रन्थ था, जिस परम्परा की भगवती-आराधना है। भगवती-आराधना के अध्येता दशवैकालिक का भी स्वाध्याय करते थे। अतः जिस विषय का वर्णन दशवैकालिक की टीका में किया जा चुका है, उसकी पुनरुक्ति भगवतीआराधना की टीका में आवश्यक नहीं थी, क्योंकि जिज्ञासु उसका ज्ञान दशवैकालिक टीका से कर सकते थे।
___ यदि वह दशवैकालिक किसी भिन्न परम्परा का ग्रन्थ होता, तो उसका अध्ययन भगवती-आराधना के अध्येताओं के लिए संभव नहीं था। तब भगवती-आराधना की टीका में उक्त उद्गमादिदोषों का वर्णन न किये जाने से उसके अध्येता उनके ज्ञान से वंचित रह जाते। इससे फलित होता है कि वह दशवैकालिक भगवती-आराधना की परम्परा का ही ग्रन्थ था।
पं० नाथूराम जी प्रेमी का यह कथन युक्तिसंगत है कि "दिगम्बरसम्प्रदाय का कोई आचार्य किसी अन्य सम्प्रदाय के आचारग्रन्थ की टीका लिखेगा, यह एक तरह से अद्भुत सी. बात है।" (जै.सा.इ./प्र.सं./पृ.४५)। इसीलिए सिद्ध होता है कि उक्त दशवैकालिक अपराजितसूरि के ही सम्प्रदाय का ग्रन्थ था। और चूँकि भगवतीआराधना की विजयोदयाटीका में यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन है, इससे सिद्ध है कि अपराजितसूरि दिगम्बरपरम्परा के आचार्य थे। अतः उन्होंने दिगम्बरपरम्परा के ही दशवैकालिक पर टीका लिखी थी। और प्रेमी जी ने जो यह कहा है कि "दिगम्बरसम्प्रदाय की दृष्टि में दशवैकालिकादि सूत्र नष्ट हो चुके हैं, वे इस नाम के किसी ग्रन्थ का अस्तित्व मानते ही नहीं हैं," (जै.सा.इ./प्र.सं./ पृ.४५), वह समीचीन नहीं है। दिगम्बरपरम्परा अंगप्रविष्टश्रुत के बारह अंगों का कथंचित् विच्छेद (लोप) मानती है, सर्वथा नहीं। ९ तथा अंगबाह्यश्रुत का विच्छेद तो कथंचित् ४९. "लोहाइरिये सग्गलोगं गदे आयारदिवायरो अत्थमिओ। एवं बारससु दिणयरेसु भरहखेत्तम्मि
अत्थमिएसु सेसाइरिया सव्वेसिमंगपुव्वाणमेगदेसभूद-पेज्जदोस-महाकम्मपयडिपाहुडादीणं धारया जादा।" धवला/ष.खं/पु.९/४,१,४४ / पृ. १३३।
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