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१७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१४/प्र०२ भी नहीं मानती। दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि अंगबाह्यश्रुत के भेद हैं। उन्हें दिगम्बरश्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में 'अंग' या 'सूत्र' से भिन्न माना गया है, क्योंकि वे गणधर द्वारा रचित नहीं हैं, अपितु उनके शिष्य-प्रशिष्यों (आरातीय आचार्यों) के द्वारा रचे गये हैं।५° अतः दिगम्बर-परम्परा उनका विच्छेद नहीं मानती। फलस्वरूप दशवैकालिक का अस्तित्व दिगम्बरपरम्परा में भी था, जिसका उसमें पठन-पाठन होता था, इसीलिए उस पर दिगम्बराचार्य अपराजितसूरि ने टीका लिखी थी। वह वर्तमान में उपलब्ध नहीं है, संभव है किसी शास्त्रभण्डार में उसकी कोई प्रति दबी पड़ी हो। अपराजितसरि को यापनीय सिद्ध करने के लिए उक्त दशवैकालिक को श्वेताम्बरग्रन्थ बतलाना भी असत्य है। अतः इस हेतु के भी असत्य होने से सिद्ध है कि अपराजितसूरि यापनीयआचार्य नहीं हैं, अपितु दिगम्बराचार्य हैं।
काणूर् या क्राणू दिगम्बर-मूलसंघ का ही गण यापनीयपक्ष
"विजयोदयाटीका में जटासिंहनन्दी के 'वरांगचरित' से कुछ श्लोक उद्धृत किये गये हैं। जटासिंहनन्दी को कन्नड़ कवि जन्न ने क्राणूगण का बताया है और यह क्राणूगण यापनीय है।" (जै.ध.या.स./पृ.१५७)। अतः यापनीय जटासिंहनन्दी-कृत वरांगचरित से श्लोक उद्धृत करने के कारण सिद्ध होता है कि अपराजितसूरि यापनीय हैं। दिगम्बरपक्ष
१. विजयोदयाटीका में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से, श्वेताम्बरीय-आगमों से, और भर्तृहरि के श्रृंगारशतक से भी गाथाएँ और श्लोक उद्धृत किये गये हैं। इससे उपर्युक्त हेतु के आधार पर अपराजितसूरि एक साथ दिगम्बर, श्वेताम्बर और शैव भी सिद्ध होते हैं। अतः वह हेतु साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास है, हेतु नहीं है। ५०. क- "यद् गणधरशिष्यप्रशिष्यैरारातीयैरधिगतश्रुतार्थतत्त्वैः कालदोषादल्पमेधायुर्बलानां
प्राणिनामनुग्रहार्थमुपनिबद्धं संक्षिप्ताङ्गार्थवचनविन्यासं तदङ्गबाह्यम्।" तत्त्वार्थराजवर्तिक
१/२०/१३/ पृ. ७८। ख- अंग, पूर्व, वस्तु और प्राभृत आदि सूत्र कहलाते हैं
सुत्तं गणहरकहियं तहेव पत्तेयबुद्धिकहिदं च।
सुदकेवलिणा कहिदं अभिण्णदसपुव्वकहिदं च॥ २७७॥ मूलाचार। "सूत्रं अङ्गपूर्ववस्तुप्राभृतादि गणधरदेवैः कथितं सर्वज्ञमुखकमलादर्थं गृहीत्वा ग्रन्थस्वरूपेणरचितं गौतमादिभिः। ---" आचारवृत्ति / मूलाचार / गा.२७७।
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