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१७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० १४ / प्र० २
"यथालन्दिका द्विविधाः - गच्छप्रतिबद्धाः, इतरे च गच्छाप्रतिबद्धाः । ते पुनरेकैकशो द्विभेदा: - जिनकल्पिकाः स्थविरकल्पिकाश्च । तत्र यथालन्दिककल्पपरिसमाप्त्यनन्तरं ये जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते जिनकल्पिकाः । ये तु स्थविरकल्पमेवाश्रयिष्यन्ति ते स्थविरकल्पिकाः । " ( अभि. रा. को. / भा.१ / पृ. ८६८) ।
अनुवाद — " यथालन्दिक (अथालन्दिक) मुनि दो प्रकार के होते हैं : गच्छ से प्रतिबद्ध और गच्छ से अप्रतिबद्ध । इन दोनों के भी दो भेद हैं : जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक । इनमें जो यथालन्दिककल्प की समाप्ति के अनन्तर जिनकल्प ग्रहण करते हैं, वे जिनकल्पिक कहलाते हैं तथा जो स्थविरकल्प में ही स्थित रहते हैं, वे स्थविरकल्पी नाम से जाने जाते हैं । "
“स्थविरकल्पिका यथालन्दिका अवश्यमेव एकैकपतद्ग्रहकाः प्रत्येकमेकैकपतद्ग्रहधारिणः तथा सप्रावरणाश्च भवन्ति । ये पुनरेषां यथालन्दिकानां जिनकल्पे भविष्यन्ति, जिनकल्पिकयथालन्दिका इत्यर्थः । भांवे तेषां वस्त्रपात्रे सप्रावरणाः प्रावरणपतद्ग्रहधारि-पाणिपात्रभेदभिन्न- भाविजिनकल्पापेक्षया केषाञ्चिद् वस्त्रपात्रलक्षणमुपकरणं भवति, केषाञ्चिद् नेत्यर्थः ।" (अभि.रा.को./ भा. १/ पृ. ८६९)।
अनुवाद - " जो स्थविरकल्पी यथालन्दिक होते हैं, वे अवश्य ही एकपात्रधारी और सप्रावरण (चादरधारी) होते हैं। तथा जो इन यथालन्दिकों के जिनकल्प में होंगे, वे जिनकल्पिक-यथालन्दी हैं । उन भावी जिनकल्पिक - यथालन्दिकों में कुछ वस्त्रपात्रोपकरणधारी होते हैं और कुछ नहीं ।"
"परिहारकल्पस्थितो भिक्षुः स्वकीयेन पतद्ग्रहेण प्रतिग्रहणेन वा वसतेर्बहिरात्मनः स्वशरीरस्य वैयावृत्याय, भिक्षाऽनयनायेत्यर्थः गच्छेत् । स्थविराश्च तथा गच्छन्तं दृष्ट्वा वदेयुरस्मद्योग्यमपि स्वपात्रके गृह्णीया अहमपि भोक्ष्ये पास्यामि वा । एवमुक्ते तस्य कल्पते स्थविरयोग्यं प्रतिगृहीतुम्।" (अभि. रा. को. / भा. ५/पृ.६८४) ।
अनुवाद - " परिहारकल्प में स्थित भिक्षु जब अपने पात्र में अपने लिए भिक्षा लाने हेतु वसति के बाहर जाय, उस समय स्थविर भिक्षु उससे कहें कि हमारे योग्य भी भोजन - पान अपने पात्र में ले आना, तब उसे अपने पात्र में उनके योग्य भिक्षा लानी चाहिए। "
विजयोदया टीका में अथालन्दकादि का स्वरूप
अब भगवती - आराधना (गा. 'किण्णु अधालंद' १५७) की विजयोदयाटीका में प्रतिपादित उक्त मुनियों के स्वरूप पर दृष्टिपात करें
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