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१७ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१४ / प्र०२ और आहार के सिवाय तृण का आसन, लकड़ी का तख्त, पीठ, चटाई आदि ग्रहण नहीं करते। संयम के लिए पीछी ग्रहण करते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा भरत और ऐरावत में, तीर्थ की अपेक्षा प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के तीर्थ में तथा काल की अपेक्षा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में विद्यमान होते हैं। ---श्रुत से दशपूर्व के पाठी होते हैं और वेद से पुरुषवेदी।"
"जिनकल्पो निरूप्यते-जितरागद्वेषमोहा उपसर्गपरिषहारिवेगसहाः जिना इव विहरन्ति इति जिनकल्पिका एक एवेत्यतिशयो जिनकल्पिकानाम्। इतरो लिङ्गादिराचारः प्रायेण व्यावर्णितरूप एव। --- सर्वधर्मक्षेत्रेषु भवन्ति जिनकल्पिकाः। काल: सर्वदा।" (वि.टी./भ.आ/गा.१५७/ पृ.२०५)।
अनुवाद-"जिनकल्प का निरूपण किया जा रहा है। जिन्होंने रागद्वेषमोह को जीत लिया है, जो उपसर्गपरीषहरूपी शत्रुओं के वेग को सहते हैं और जिन के समान अकेले ही विहार करते हैं, वे जिनकल्पिक कहलाते हैं। जिनकल्पियों में उपर्युक्त संयतों से यह एक ही विशेषता है। शेष लिंगादि-आचार प्रायः पूर्वोक्तरूप ही है। जिनकल्पिक मुनि समस्त कर्मभूमियों में सर्वदा होते हैं।"
दोनों में विरोध अथालन्दिकादि मुनियों के इन द्विविध स्वरूपों की तुलना करने पर उनमें निम्नलिखित विरोध दृष्टिगोचर होते हैं
१. श्वेताम्बरग्रन्थों में वर्णित अथालन्दिक, जिनकल्पिक और परिहारकल्पिक, तीनों प्रकार के मुनि वस्त्रपात्रधारी होते हैं, कुछ ही (वस्त्रपात्रलब्धियुक्त) जिनकल्पी मुनि वस्त्रपात्ररहित बतलाये गये हैं, किन्तु उनके पास भी कम से कम मुखवस्त्रिका और रजोहरण ये दो चेलमय उपकरण तो होते ही हैं, जबकि विजयोदयाटीका में उक्त तीनों प्रकार के मुनियों को उत्सर्गलिंगधारी (सर्वथा अचेल) कहा गया है। उनके पास उपकरण के रूप में केवल प्रतिलेखना (मयूरपिच्छी) होती है।
२. श्वेताम्बरग्रन्थों में अथालन्दिकों के दो भेद वर्णित हैं : स्थविरकल्पिक (सर्वथा सचेल) और जिनकल्पिक (कथंचित् सचेल)। यापनीयमत में भी स्थविरकल्पी मुनियों का अस्तित्व माना गया है। किन्तु विजयोदयाटीका में स्थविरकल्पिकों का नाम भी नहीं है। उसमें तो अथालन्दिकों को एकमात्र उत्सर्गलिंगधारी (सर्वथा अचेल) ही बतलाया गया है।
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