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अ० १४ / प्र० २
अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १७७ " आचारो निरूप्यते - अथालन्दसंयतानां लिङ्गमौत्सर्गिकं, देहस्योपकारार्थमाहारं वसतिं च गृह्णन्ति, शेषं सकलं त्यजन्ति । तृणपीठ-कट-फलकादिकमुपधिं च न गृह्णन्ति । प्राणिसंयम - परिपालनार्थं जिनप्रतिरूपतासम्पादनार्थं च गृहीतप्रतिलेखना ग्रामान्तरगमने, विहारभूमिगमने, भिक्षाचर्यायां, निषद्यायां चाप्रतिलेखना एव व्युत्सृष्टशरीरसंस्काराः परीषहान् सहन्ते नो वा धृतिबलहीनाः । यस्मात् पाणिपात्रभोजी ---। क्षेत्रतः सप्ततिशतधर्मक्षेत्रेषु भवन्ति । कालतः सर्वदा । ---वेदतः पुमांसो नपुंसकाश्च ।" (वि.टी. /भ.आ./गा. १५७/ पृ.१९८, २०० ) ।
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अनुवाद- 'अब अथालन्दकों के आचार का निरूपण करते हैं । अथालन्दक संयतों का लिंग औत्सर्गिक (नग्नत्व) होता है । देहोपकार के लिए आहार और वसति स्वीकार करते हैं, शेष सब छोड़ देते हैं। तृण, पीठ, चटाई, लकड़ी का तख्त आदि ग्रहण नहीं करते । प्राणिसंयम का पालन करने के लिए और जिनदेव का प्रतिरूप रखने के लिए पीछी रखते हैं । अन्य ग्राम को जाते समय, विहारभूमि में जाते समय, भिक्षाचर्या के समय और बैठते समय प्रतिलेखना नहीं करते। शरीर का संस्कार नहीं करते, परीषहों को सहते हैं और धैर्यबल से हीन नहीं होते। --- वे पाणिरूप पात्र में भोजन करते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा एक सौ सत्तर कर्मभूमिरूप धर्मक्षेत्रों में उनका अस्तित्व होता है । काल की अपेक्षा सदा विद्यमान होते हैं । वेद (भाववेद) से पुरुष और नपुंसक होते हैं।"
" परिहार उच्यते – जिनकल्पस्यासमर्थाः परिहारसंयमभरं वोढुं समर्थाः आत्मनो बलं वीर्यमायुः प्रत्यवायांश्च ज्ञात्वा ततो जिनसकाशमुपगत्य कृतविनयाः प्राञ्जलयः पृच्छन्ति - " परिहारसंयमं प्रतिपत्तुमिच्छामो युष्माकमाज्ञया । " लिङ्गादिकस्तेषामाचारो निरूप्यते - एकोपधिकमवसानं लिङ्गं परिहारसंयतानाम् । वसतिमाहारं च मुक्त्वा नान्यद् गृह्णन्ति तृणफलकपीठकटकादिम् । संयमार्थं प्रतिलेखनं गृह्णन्ति । --- क्षेत्रतः भरतैरावतयोः, प्रथमपाश्चात्ययोः तीर्थे, उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योः कालतः --- । श्रुतेन च दशपूर्विणः, वेदेन पुरुषवेदाः ।" (वि.टी. /भ.आ./गा. १५७ / पृ.२०१, २०३,२०५) ।
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५३.
अनुवाद - " परिहारसंयम का कथन करते हैं। जो जिनकल्प को धारण करने में असमर्थ और परिहारसंयम के भार को वहन करने में समर्थ होते हैं, वे अपना बल, वीर्य, आयु और (संभावित) विघ्नों को जानकर जिन भगवान् के पास जाकर हाथ जोड़कर विनयपूर्वक पूछते हैं- "हम आपकी आज्ञा से परिहारसंयम धारण करना चाहते हैं । " - - - परिहारसंयतों का लिंगादि आचार बतलाते हैं- उनका एक उपधिवाला (प्रतिलेखना = पिच्छीयुक्त) वस्त्ररहित (अवसान ) ५३ लिंग (वेश) होता है। वे वसति
अवसानम्
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= not dressed / सर एम. मोनियर विलियम्स : संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी ।
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