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अ० १४ / प्र० २
अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १६९
अनुवाद—“ये अवर्णवाद असम्भव हैं । ' अरहन्त सर्वज्ञ या वीतराग नहीं है, क्योंकि वे पुरुष हैं, जैसे राह चलते पुरुष' इस प्रयोग में 'पुरुष' हेतु ठीक नहीं है, क्योंकि असर्वज्ञता और अवीतरागता के बिना कोई पुरुष नहीं होता, ऐसी अन्यथानुपपत्ति नहीं है। इस तरह से तो यह भी कहा जा सकता है कि 'जैमिनी आदि समस्त दार्शनिक वेदार्थ के ज्ञाता नहीं हैं, क्योंकि वे पुरुष हैं, जैसे भेड़ चरानेवाला पुरुष ।"
इससे स्पष्ट है कि उक्त सन्दर्भ में अपराजितसूरि ने जैनेतर दार्शनिकों द्वारा किये जाने वाले अवर्णवादों का प्रसंग उठाया है और उसका प्रयोजन है उनके द्वारा किये गये दोषारोपणों का निराकरण करना, न कि श्वेताम्बरों द्वारा किये जाने वाले दोषापरोपणों का निराकरण । इसलिए केवली - कवलाहार का दृष्टान्त नहीं दिया गया।
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इतना स्पष्ट सन्दर्भ होने पर भी श्रीमती डॉ० पटोरिया ने उक्त उदाहरण से अपराजित सूरि के केवलिकवलाहार - समर्थक होने की कल्पना कर ली, यह छलवाद से अपना अभिप्राय सिद्ध करने का उदाहरण है । यह बिना दाल, चावल, आग और पानी के खिचड़ी पका लेने की अद्भुत दक्षता की मिसाल है। डॉ० सागरमल जी ने भी उक्त कथन के सन्दर्भ की स्वयं छानबीन किये बिना श्रीमती पटोरिया के कथन को अपराजितसूरि के कथन से भी अधिक प्रामाणिक मानकर स्वीकार कर लिया और एक दिगम्बराचार्य को बलात् दिगम्बर खेमे से खींचकर यापनीयों के खेमे में डाल दिया। खेद है कि इन दोनों यापनीयपक्षपोषक ग्रन्थ-लेखकों ने अपराजितसूरि के " प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही मुनि को क्षुधापरीषह और भक्त-पान की आकांक्षा होती है," इस वचन को पढ़े बिना ही या पढ़ने के बाद भी जान बूझकर उन पर यापनीय होने की छाप लगा दी और इतिहास को विकृत करने का अशुभकार्य कर डाला । यतः यह हेतु भी असत्य है, अतः सिद्ध है कि अपराजितसूरि यापनीय नहीं, अपितु दिगम्बर हैं।
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यापनीयपक्ष
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दिगम्बर- चन्द्रनन्दी यापनीय चन्द्रनन्दी से भिन्न
अपराजितसूरि ने विजयोदयाटीका में अपने को चन्द्रनन्दी महाप्रकृत्याचार्य का प्रशिष्य कहा है। गंगवंशी पृथ्वीकोङ्गणि महाराज के शक सं० ६९८ ( वि० सं० ८३३) के दानपत्र में श्रीमूलमूलगणाभिनन्दित नन्दिसंघ ( यापनीय - नन्दिसंघ) के चन्द्रनन्दी आचार्य का उल्लेख है । (जै. शि. सं. / मा.च. / भा. २/ले. क्र. १२१) अपराजितसूरि इन्हीं
४७. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ. १५९ ।
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