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१६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१४/प्र०२ स्वीकार्य है, वह सर्वथा असत्य है। इसलिए यह कथन भी असत्य है कि वे यापनीय आचार्य हैं।
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कवलाहार-विषयक अवर्णवाद का उदाहरण अनावश्यक यापनीयपक्ष
श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया कहती हैं-"अर्हन्त-अवर्णवाद के अवसर पर दिगम्बरग्रन्थों में केवलि-कवलाहार का उदाहरण दिया जाता है, वह विजयोदया में नहीं है, इस अनुल्लेख से भी वे (अपराजितसूरि) यापनीय प्रतीत होते हैं।" (यापनीय
और उनका साहित्य / पृ.१३४)। दिगम्बरपक्ष
प्रथम प्रकरण में (केवलिभुक्तिनिषेध' शीर्षक ६ के अन्तर्गत) अपराजितसूरि के वे वचन उद्धृत किये गये हैं, जिनसे केवली के कवलाहारी होने का निषेध होता है। श्रीमती पटोरिया यदि उपर्युक्त वचन पढ़ लेतीं, तो अपराजितसूरि को यापनीय सिद्ध करने के लिए कथित तर्क न देतीं। भले ही अपराजितसूरि ने अर्हन्त-अवर्णवाद के अवसर पर केवली को कवलाहारी कहने का उदाहरण न दिया हो, किन्तु वे केवलिकवलाहार की मान्यता के विरोधी थे, यह उनके पूर्वोक्त वचनों से प्रमाणित है। इससे सिद्ध होता है कि वे यापनीय नहीं, अपितु दिगम्बर हैं।
___ तथा उक्त विदुषी ने जहाँ केवलि-कवलाहार का उदाहरण न देने की बात कही है, वहाँ उसकी आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि टीकाकार जैनेतर दार्शनिकों द्वारा किये जानेवाले अवर्णवादों का उदाहरण दे रहे हैं। "अरहन्त भगवान् में सर्वज्ञता और वीतरागता नहीं होती, क्योंकि सभी प्राणी रागादि और अज्ञान से युक्त होते हैं," यह कथन जैमिनी आदि जैनेतर दार्शनिकों का है। अपराजितसूरि ने इसे अरहन्तों का अवर्णवाद (मिथ्या-दोषारोपण) कहा है।"४६ यह इस बात से स्पष्ट है कि इसका निराकरण टीकाकार ने उन्हीं दार्शनिकों को दृष्टान्त बनाकर किया है। यथा_ "एतेषामवर्णवादानामसम्भवप्रदर्शनम्। पुरुषत्वाद् रथ्यापुरुषवत् सर्वज्ञो वीतरागो वा न भवत्यर्हन् इति साधनमनुपपन्नम्। असर्वज्ञतामवीतरागतां चान्तरेण पुरुषता नोपपद्यते इत्यन्यथानुपपत्तेरभावात्। जैमिन्यादयो न सकलवेदार्थज्ञा पुरुषत्वादविपालवद् इति शक्यं वक्तुम्।" (वि.टी./ भत्तीपूया' गा. ४६ / पृ.९३)। ४६. "सर्वज्ञतावीतरागते नार्हति विद्येते रागादिभिरविद्यया च अनुगताः समस्ता एव प्राणभृतरित्यादि
रहतामवर्णवादः।" विजयोदयाटीका/ भगवती-आराधना/ गा. 'भत्ती पूया' ४६ / पृ.९१ ।
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