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१०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० १३ / प्र० ३
आगम में उनके लिए सवस्त्र दीक्षालिङ्ग ही निर्धारित किए गए हैं, अतः उक्त श्लोक में भी उनके लिए भक्तप्रत्याख्यानकाल में सवस्त्रलिङ्ग ही ग्राह्य बतलाया गया है, मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग नहीं ।
५. आर्यिका का अल्पपरिग्रहात्मक लिङ्ग ही उपचार से सकलपरिग्रहत्यागरूप उत्सर्गलिङ्ग
विजयोदयाटीका में कहा गया है कि श्राविका को भक्तप्रत्याख्यान के समय एकांतस्थान में सकलपरिग्रहत्याग-रूप उत्सर्गलिङ्ग ग्रहण करना चाहिए। संभवतः यहाँ उत्सर्गलिङ्ग के साथ 'सकलपरिग्रह - त्यागरूप' विशेषण देखकर पं० आशाधर जी को यह भ्रम हो गया कि भगवती - आराधना में स्त्रियों के लिए एकांतस्थान में मुनिवत् नग्नतारूप उत्सर्गलिङ्ग ग्रहण करने के लिए कहा गया है। अपराजित सूरि को इस बात का अंदेशा था कि पाठकों को ऐसा भ्रम हो सकता है, अतः उन्होंने उक्त कथन के बाद स्वयं शंका उठाकर यह स्पष्ट कर दिया है कि यहाँ एकसाड़ीमात्र अल्पपरिग्रह को उपचार से सकल परिग्रहत्यागरूप उत्सर्गलिङ्ग कहा गया है । यथा
“विविक्ते त्वावसथे उत्सर्गलिङ्गं वा सकलपरिग्रहत्यागरूपम् । उत्सर्गलिङ्गं कथं निरूप्यते स्त्रीणामित्यत आह- तदुत्सर्गलिङ्गं स्त्रीणां भवति अल्पं परिग्रहं कुर्वत्याः ।” (वि. टी./ भ.आ./गा.८० ) ।
अपराजित सूरि के कथन का अभिप्राय यह है कि यद्यपि निश्चयनय से तो वस्त्र का भी त्याग कर देनेवाले मुनि का लिङ्ग उत्सर्गलिङ्ग होता है, तथापि स्त्री के प्रसंग में एकसाड़ी-- मात्र रखकर शेष परिग्रह त्याग देनेवाली आर्यिका और श्राविका के अल्पपरिग्रहात्मक लिङ्ग को भी उपचार से उत्सर्गलिङ्ग नाम दिया गया है। उपचार - महाव्रत - धारिणी, उपचारतपस्विनी, उपचारसंयती और उपचार श्रमणी के समान उपचार - उत्सर्गलिङ्ग नाम का व्यवहार युक्तिसंगत भी है। पं० आशाधर जी ने भी यह बात अपनी पूर्वोद्धृत टीका में निम्नलिखित शब्दों में स्वीकार की है-" औत्सर्गिकं तपस्विनीनां साटकमात्रपरिग्रहेऽपि तत्र ममत्वपरित्यागादुपचारतो नैर्ग्रन्थ्यव्यवहरणानुसरणात्। " (मूलाराधनादर्पण / भ.आ./ गा. ८०) । फिर भी ( अपराजित सूरि के स्पष्टीकरण एवं आत्म-स्वीकृति के बाद भी ) पण्डित जी ने आर्यिका और श्राविका के लिए भक्तप्रत्याख्यानकाल में स्त्रियों के लिए निर्धारित उपचार - उत्सर्गलिङ्ग के स्थान में पुरुषों के लिए निर्धारित निश्चय - उत्सर्गलिङ्ग ग्राह्य बतलाया है, यह आश्चर्य की बात है । यह तो स्पष्टतः भगवती आराधना की उक्त गाथा में प्रतिपादित अर्थ के प्रतिकूल है।
६. आर्यिकाओं के प्रसंग में 'पुंसामिव योज्यम्' निर्देश भी नहीं
विजयोदयाटीका में जैसे 'इतरासां पुंसामिव योज्यम्' (भ.आ./गा. ८०) इस वाक्य के द्वारा भक्तप्रत्याख्यान - काल में श्राविकाओं की लिङ्गव्यवस्था को पुरुषों की
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