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अ०१४/प्र०१
अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १२७ १.१.१७. बलवीर्य के प्रकटन में बाधक-अपराजितसूरि आगे कहते हैं कि अचेलत्व से बलवीर्य प्रकट होता है, सचेलत्व उसे अवरुद्ध करता है____ "अनिगूढबीलवीर्यता च गुणः। परीषहसहने शक्तोऽपि सचेलो न परीषहान् सहते इति। एवमेतद्गुणावेक्षणादचेलता जिनोपदिष्टा।" (वि.टी./गा. आचेलक्कु'४२३/पृ.३२३)।
अनुवाद-"अचेलता बलवीर्य की अभिव्यक्ति में सहायक होती है। जो वस्त्रधारण करता है, वह परीषह सहने में समर्थ होते हुए भी उससे वंचित हो जाता है। इन गुणों को देखकर जिनेन्द्रदेव ने मोक्ष के लिए अचेलता का उपदेश दिया है।"
१.१.१८. अचेल ही निर्ग्रन्थ है-अचेलत्व ही निर्ग्रन्थता का लक्षण है, सचेलत्व नहीं, इस सत्य का प्रकाशन सूरि जी ने निम्नलिखित शब्दों में किया है
"चेलपरिवेष्टिताङ आत्मानं निर्ग्रन्थं यो वदेत्तस्य किमपरे पाषण्डिनो न निर्ग्रन्थाः? वयमेव, न ते निर्ग्रन्था इति वाङ्मानं नाद्रियते मध्यस्थैः।" (वि.टी./गा. आचेलक्कु' ४२३/ पृ.३२३)।
अनुवाद-"जिनेन्द्रदेव द्वारा मोक्ष के लिए अचेलता का उपदेश दिये जाने से सिद्ध है कि जो अचेल होता है, वही निर्ग्रन्थ है। जो पुरुष शरीर को वस्त्र से परिवेष्टित कर अपने को निर्ग्रन्थ कहता है, उसके अनुसार अन्यमतानुयायी साधु निर्ग्रन्थ कैसे नहीं कहलायेंगे? 'हम ही निर्ग्रन्थ हैं, वे निर्ग्रन्थ नहीं हैं, यह तो कथनमात्र है। कोई भी मध्यस्थ पुरुष इस पर विश्वास नहीं करेगा।"
तात्पर्य यह कि यदि कोई जैनधर्मानुयायी साधु सवस्त्र होते हुए भी अपने को निर्ग्रन्थ कहता है, तो अन्य मतानुयायी सवस्त्र साधु भी निर्ग्रन्थ कहलायेंगे। अतः निर्वस्त्र रहना ही निर्ग्रन्थता का लक्षण है। श्वेताम्बर साधु सचेल होते हुए भी अपने को निर्ग्रन्थ कहते हैं। अपराजितसूरि ने श्वेताम्बरों की इस मान्यता पर प्रहार किया है।
सचेलता के दोषों का उपसंहार करते हुए अपराजित सूरि कहते हैं
"इत्थं चेले दोषा अचेलतायां वा अपरिमिता गुणा इति अचेलता स्थितिकल्पत्वेनोक्ता।" (वि.टी./गा. आचेलक्कु' ४२३ / पृ. ३२३)।
अनुवाद-"इस तरह वस्त्रधारण करने में अनेक दोष हैं और अचेलता में अपरिमित गुण हैं, इसलिए अचेलता को स्थितिकल्प कहा गया है।" १.२. किसी भी सचेल का निर्दोष रहना असंभव
___ अपराजितसूरि ने सचेल मुनिलिंग में इन मोक्षविरोधी अठारह दोषों का निरूपण कर यह स्पष्ट किया है कि किसी भी वस्त्रधारी पुरुष का वस्त्रपरिग्रहजन्य दोषों से
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