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द्वितीय प्रकरण यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता
यतः विजयोदयाटीका में प्रतिपादित यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों से अपराजितसूरि का यापनीय होना असिद्ध हो जाता है, अतः सिद्ध होता है कि यापनीयपक्षधर विद्वानों ने उन्हें यापनीय सिद्ध करने के लिए जो हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे या तो असत्य हैं या उनमें हेतु का लक्षण घटित नहीं होता, अतः वे हेत्वाभास हैं। इसका प्रतिपादन आगे किया जा रहा है।
मुनि के लिए सचेल अपवादलिंग अमान्य यापनीयपक्ष
__ अपराजितसूरि ने आचारांगादि श्वेताम्बर आगमों से उद्धरण देकर स्पष्ट किया है कि उनमें भी अचेलता को ही मुनि का लिंग बतलाया है, मात्र विशेष परिस्थितियों में वस्त्रग्रहण की अनुमति दी गयी है। इस पर टिप्पणी करते हुए पं० नाथूराम जी प्रेमी ने लिखा है-"इससे अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है कि व्याख्याकार यापनीय हैं और वे उन सब आगमों को मानते हैं, जिनके उद्धरण उन्होंने अचेलता के प्रकरण में दिये हैं। उनका अभिप्राय यह है कि साधुओं को. नग्न रहना चाहिए, नग्न रहने की ही आगमों की प्रधान आज्ञा है और कहीं-कहीं जो वस्त्रादि का उल्लेख मिलता है, सो उसका अर्थ इतना ही है कि यदि कभी अनिवार्य जरूरत आ पड़े, शीतादि की तकलीफ बरदाश्त न हो, या शरीर बेडौल, घिनौना हो, तो कपड़ा ग्रहण किया जा सकता है, परन्तु वह ग्रहण करना कारणसापेक्ष है और एक तरह से अपवादरूप है।---विजयोदयाटीका का यह एक ही प्रसंग उसे यापनीय सिद्ध करने के लिए काफी है।" (जै.सा.इ./द्वि.सं./पृ.६५-६६)।
श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया का कथन है-"अपराजितसूरि ने 'यतीनामपवादकारणत्वात् परिग्रहोऽपवादः' कहकर यति के परिग्रहधारण को ही अपवाद कहा है। अपवाद उत्सर्गसापेक्ष होता है। परिग्रहत्याग मुनि का उत्सर्गलिंग है, अतः परिग्रहधारण यति का ही अपवादलिंग होगा। गृहस्थ तो परिग्रही होता ही है। अपवादलिंगी मुनि के साथ भक्तप्रत्याख्यान के लिए उत्सुक गृहस्थ के लिंग को भी अपवादलिंग कहा गया है।" (यापनीय और उनका साहित्य / पृ.१२८)।
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