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अ० १४ / प्र० १
अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १३५
अनुवाद - " जो रत्नत्रय की आराधना करता है, उसे निदान न करने पर भी आगामी जन्म में पुरुषत्व तथा संयम का लाभ निश्चितरूप से होता है । "
"यदि तावत् उच्चैर्गोत्रता, पुरुषत्वं, स्थिरशरीरता, अदरिद्रकुलप्रसूतिर्बन्धुतेत्येवमादिकं मुक्तेः परम्परया कारणमपि चित्ते क्रियमाणमपि संसारवृद्धिं करोति, कथं न करिष्यति दीर्घसंसारं परवधे चित्तप्रणिधानम्?" (वि.टी. / गा.' जइदा उच्चत्तादि' १२३३) ।
अनुवाद - " उच्च गोत्र, पुरुषपर्याय, शरीर की स्थिरता, अदरिद्रकुल में जन्म तथा बन्धुबान्धव आदि परम्परया मुक्ति के कारण हैं, तो भी चित्त में इनकी प्राप्ति का विचार करने से संसार की वृद्धि होती है, तब परवध का चित्त में विचार करना दीर्घसंसार का कारण कैसे नहीं होगा ?"
इन समस्त वक्तव्यों में अपराजितसूरि ने पुरुषशरीर और वज्रवृषभनाराच संहनन को परिपूर्ण संयम का साधन तथा मुक्ति का परम्परया कारण कहा है, स्त्रीशरीर का कहीं नाम भी नहीं लिया। इससे स्पष्ट है कि टीकाकार पुरुषशरीर को ही मोक्ष की साधना के योग्य मानते हैं, स्त्रीशरीर को नहीं । यह उनके स्त्रीमुक्ति-निषेधक होने का ज्वलन्त प्रमाण है।
७. अपराजितसूरि ने आर्यिकाओं के लिए संयती शब्द का प्रयोग नहीं किया है, यह भी ध्यान देने योग्य है । यथा
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" सव्वगणं - संयतानां, आर्यिकाणां श्रावकाणाम् इतरासां च समितिम् ।" (वि.टी. / गा. 'इत्तिरियं सव्वगणं' १७९ ) ।
अनुवाद - " सर्वगण का अर्थ है संयत (मुनि), आर्यिका श्रावक-श्राविका तथा अन्य जनों का समूह।"
“चैत्यसंयतानार्थिकाः श्रावकांश्च बालमध्यमवृद्धांश्च पृष्ट्वा कृतगवेषणो याति इति प्रश्नकुशलः ।" (वि.टी./गा. 'गच्छेज्ज एगरादिय' ४०५ ) ।
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अनुवाद - " जिनालय में स्थित संयतों (मुनियों), आर्यिकाओं और श्रावकों से तथा बाल, प्रौढ़ और वृद्धों से भिक्षास्थान ज्ञात करके गमन करना प्रश्नकुशलता है ।"
इन वाक्यों में टीकाकार ने मुनियों के लिए तो 'संयत' शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु आर्यिकाओं के लिए 'संयती' शब्द प्रयुक्त नहीं किया। इससे उन्होंने यही ध्वनित किया है कि स्त्रियाँ संयतगुणस्थान के योग्य नहीं होतीं अर्थात् स्त्रीपर्याय से मुक्ति संभव नहीं है।
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