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अ०१३/प्र०३
भगवती-आराधना / १११ का उल्लेख नहीं है। उक्त शब्दप्रमाणों से वह आगमविरुद्ध सिद्ध होता है। युक्तितः भी वह आगम विरुद्ध ठहरता है, क्योंकि भक्तप्रत्याख्यान के समय आर्यिका या श्राविका के वस्त्रत्याग से किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती। उससे न तो उनके गुणस्थान की वृद्धि होती है, न संवरनिर्जरा की। वह स्त्रियों को मोक्षमार्ग में किसी भी तरह आगे नहीं बढ़ाता। स्त्रीपर्याय में जीव का उत्थान पाँचवें गुणस्थान तक ही हो सकता है और वह साड़ीमात्रपरिग्रहरूप उत्सर्गलिङ्ग से ही संभव है, उसके अभाव में नहीं। इसके अतिरिक्त संस्तरारूढ़ स्त्री की नग्न अवस्था में मृत्यु होने पर यदि उसके शव को उसी अवस्था में दाहसंस्कार के लिए ले जाया जाता है, तो इससे लज्जास्पद और बीभत्स दृश्य उपस्थित होगा और यदि साड़ी में लपेटकर ले जाया जाता है, तो यह सिद्ध होगा कि वस्त्रत्याग
निरर्थक है।
१०. पं० सदासुख जी को अस्वीकार्य
पं० सदासुख जी ने भी उक्त गाथा की स्वरचित टीका में आर्यिकाओं और श्राविकाओं के लिए भक्तप्रत्याख्यानकाल में मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग के विधान का उल्लेख नहीं किया। वे लिखते हैं-"बहुरि अल्पपरिग्रहकू धारती जे स्त्री तिनकै हू औत्सर्गिक लिंग व अपवादलिंग दोऊ प्रकार होय है। तहाँ जो सोलह हस्तप्रमाण एक सुफेद वस्त्र अल्पमोल का तातै पग की एडीसूं मस्तकपर्यन्त सर्व अंगकू आच्छादन करि अर मयूरपिच्छिका धारण करती स्त्री --- ताकै --- आर्यिका का व्रतरूप औत्सर्गिक लिङ्ग कहिए। --- बहुरि गृह में वासकरि, अणुव्रत धारण करि शील, संयम, संतोष, क्षमादिरूप रहना, यह स्त्रीनि के अपवादलिंग है। सो संस्तर में दोऊ ही होय हैं। (भगवती-आराधना / गाथा 'इत्थीवि य जं लिंग' ८३ / प्रकाशक-विशम्बरदास महावीरप्रसाद जैन दिल्ली)।
इस वक्तव्य में पं० सदासुख जी ने भगवती-आराधना के अनुसार भक्तप्रत्याख्यानकाल में स्त्रियों के लिए उपर्युक्त दो ही लिंग बतलाए हैं, मुनिवत् नाग्न्यलिंग नहीं बतलाया। पंडित जी की यह व्याख्या मूल गाथा के अनुरूप है। मूल गाथा में भक्तप्रत्याख्यान के समय एकांत और सार्वजनिक स्थान का भेद किए बिना सभी आर्यिकाओं के लिए उत्सर्गलिङ्ग और सभी श्राविकाओं के लिए अपवादलिङ्ग ग्राह्य बतलाया गया है। उसमें महर्द्धिका आदि श्राविकाओं के लिए एकांतस्थान में उत्सर्गलिङ्ग ग्रहण करने का कथन नहीं है। इसका कथन महर्द्धिक आदि श्रावकों के लिए बतलाई गई विशेष लिंगव्यवस्था का अनुकरण कर टीकाकार अपराजितसूरि ने किया है।
यह अनुसंधान दर्शाता है कि भगवती-आराधना में आर्यिकाओं और श्राविकाओं के लिए भक्तप्रत्याख्यान के समय एकान्त स्थान में मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग का विधान होने की भ्रान्त धारणा पं० आशाधर जी की भ्रान्तिजनित व्याख्या से जनमी है और इसका प्रायः
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