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१२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० १४ / प्र० १
नामक धर्म में प्रवृत्त होता है । जो निष्परिग्रह है, वह आकिंचन्यधर्म में भी समुद्यत होता है। परिग्रह के लिए ही 'आरंभ' में प्रवृत्ति होती है । परिग्रहहीन व्यक्ति 'आरंभ' नहीं करता, अतः उसके असंयम कैसे हो सकता है? वह सत्यधर्म में भी सम्यग्रूप से अवस्थित होता है, क्योंकि लोग परिग्रह के लिए ही झूठ बोलते हैं । किन्तु जब क्षेत्रादिक बाह्यपरिग्रह और रागादि अभ्यन्तरपरिग्रह नहीं होता, तब झूठ बोलने का कारण ही नहीं रहता । अतः अचेल मुनि जब भी बोलता है, सत्य ही बोलता है। अचेल में लाघव (निराकुलता ) भी होता है । अदत्तादान से विरति भी पूर्णतः होती है, क्योंकि परिग्रह की इच्छा होने पर ही अदत्तादान में प्रवृत्ति होती है, अन्यथा नहीं । इसके अतिरिक्त रागादि का त्याग हो जाने पर भावविशुद्धिमय ब्रह्मचर्य विशुद्धतम हो जाता है। क्रोध भी परिग्रह के ही निमित्त से होता है, अतः परिग्रह का अभाव हो जाने से उत्तमक्षमा स्थित हो जाती है। अचेल पुरुष 'मैं सुन्दर हूँ, सम्पन्न हूँ' इस प्रकार का दर्प भी त्याग देता है, अतः उसमें मादर्व भी सन्निहित होता है । परिग्रह माया का मूल है, अतः अचेल व्यक्ति माया ( कुटिलता ) से मुक्त हो जाने के कारण मन के भाव को यथावत् प्रकट करता है, इसलिए उसमें आर्जव भी होता है । चेलादि - परिग्रह का त्याग कर देनेवाला विरागभाव को प्राप्त हो जाता है, अतः वह विषयों में भी आसक्त नहीं होता । वस्त्रपरिग्रह छूट जाने पर शीतादिपरीषहजय भी संभव होता है, तथा घोर तप का अभ्यास भी होता है। इस प्रकार अचेलत्व के उपदेश से दश धर्मों का उपदेश संक्षेप में दिया गया है । "
इस विवेचना से स्पष्ट किया गया है कि सचेलत्व दश धर्मों के पालन में बाधक है।
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१.१.२. संयमशुद्धि में बाधक – अचेल मुनि संयम की शुद्धि में समर्थ होता है, सचेल मुनि असमर्थ इसका सयुक्तिक प्रतिपादन अपराजितसूरि ने निम्नलिखित शब्दों में किया है
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' अथवान्यथा प्रक्रम्यतेऽचेलतागुणप्रशंसा । संयमशुद्धिरेको गुणः । स्वेद-रजोमलावलिप्ते चेले तद्योनिकास्तदाश्रयाश्च त्रसाः सूक्ष्माः स्थूलाश्च जीवा उत्पद्यन्ते, ते बाध्यन्ते चेलग्राहिणा। संसक्तं वस्त्रं तावत्स्थापयतीति चेत्तर्हि हिंसा स्यात् । विवेचने च ते म्रियन्ते । तत्र संसक्तचेलवतः स्थाने, शयने, निषद्यायां, पाटने, छेदने, बन्धने, वेष्टने, प्रक्षालने, संघट्टने, आतपप्रक्षेपणे च जीवानां बाधेति महानसंयमः । अचेलस्यैवंविधासंयमाभावात् संयमविशुद्धिः ।" (वि.टी./गा.' आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२१)।
अनुवाद - " संयम में शुद्धि अचेलता का दूसरा गुण है। पसीने, धूल और मैल से लिप्त वस्त्र में उसी योनिवाले तथा उसके आश्रय से रहनेवाले सूक्ष्म और स्थूल
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