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११८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१४/प्र०१ अनुवाद-"असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा संयतासंयत (श्रावक) के विषयराग की निवृत्ति नहीं होती, न ही समस्त परिग्रह का परित्याग होता है।"
इसका भी तात्पर्य यह है कि जो वस्त्रादि सकल परिग्रह का त्याग नहीं करता, उसे संयतगुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती। अर्थात् वह अपराजितसूरि के अनुसार मुनि नहीं कहला सकता।
६. "एतदुक्तं भवति कर्मनिर्मूलनं कर्तुमसमर्थं तपः सम्यग्दृष्टेरप्यसंयतस्य।" (वि.टी. / गा. 'सम्मादिट्ठिस्स' ७ पृ.२२)।
अनुवाद-"असंयत जीव सम्यग्दृष्टि भी हो, तो भी उसका तप कर्मों का निर्मूलन करने में समर्थ नहीं है।"
___ इन वचनों से स्पष्ट होता है कि अपराजितसूरि के मत में वस्त्रादिपरिग्रह से युक्त पुरुष संयतगुणस्थान प्राप्त नहीं कर सकता। और संयतगुणस्थान प्राप्त न करनेवाला जीव कर्मों का उन्मूलन करने में समर्थ नहीं होता अर्थात् मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता।
७. "सकलसङ्गपरिहारो मार्गों मुक्तेः इत्यत्र भव्यानां श्रद्धां जनयति लिङ्गमिति जगत्प्रत्यय इत्यभिहितम्। न चेत्सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तिलिङ्ग किमिति नियोगतोऽनुष्ठीयत इति।" (वि.टी./गा. 'जत्तासाधण' ८१/पृ.११७)।
__ अनुवाद-"अचेललिंग 'समस्त परिग्रह का त्याग मुक्ति का मार्ग है' इस जिनवचन में श्रद्धा उत्पन्न करता है। इसलिए उसे ग्रन्थकार ने जगत्प्रत्यय कहा है। यदि सकलपरिग्रहत्याग मुक्ति का लिंग न होता तो उसे नियोगतः (नियम से, अनिवार्यतः) धारण क्यों किया जाता?"
८. "चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकलपरिग्रहत्याग आचेलक्यमित्युच्यते।" (वि.टी./गा. आचेलक्कु' ४२३/पृ.३२०)।
अनुवाद-"मात्र वस्त्रत्याग को परिग्रह का त्याग नहीं समझ लेना चाहिए। वस्त्रग्रहण तो परिग्रह का उपलक्षण है। अतः वस्त्र के साथ समस्त बाह्य पदार्थों का त्याग परिग्रह का त्याग कहलाता है। उसी को 'आचेलक्य' शब्द से अभिहित किया गया है।"
___ यहाँ केवल चेल के त्याग को आचेलक्य न कहकर चेलसहित समस्त बाह्य पदार्थों के त्याग को आचेलक्य कहने से स्पष्ट है कि अपराजितसूरि मुनि के आचेलक्यस्थितिकल्प-धारी होने के लिए वस्त्रत्याग को सर्वप्रथम आवश्यक मानते हैं। जो वस्त्रत्यागी नहीं है, वह आचेलक्य-स्थितिकल्प से रहित होने के कारण उनके अनुसार मुनि नहीं है। अपराजितसूरि के ये अनेकों वचन सवस्त्रमुक्ति का उच्च स्वर में निषेध करते हैं।
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