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अ०१४/प्र०१
अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / ११७ इस मान्यता का खण्डन उन्होंने 'तीर्थकराचरितत्वं च गुणः' इत्यादि कथन द्वारा 'आचेलक्कुद्देसिय' (४२३) गाथा की टीका में भी किया है। उनका पूर्ण कथन आगे 'सचेलत्व तीर्थंकर-मार्गानुसरण में बाधक' (१.१.१६) अनुच्छेद में द्रष्टव्य है।
२. "सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तेर्मार्गो, मया तु पातकेन वस्त्रपात्रादिकः परिग्रहः परीषह-भीरुणा गृहीत इत्यन्तःसन्तापो निन्दा।" (वि. टी./ गा. 'अववादियलिंग' ८६ / पृ.१२२)।
अनुवाद-"सकल परिग्रह का त्याग मुक्ति का मार्ग है, किन्तु मुझ पापी ने परीषहों के डर से वस्त्रपात्रादि-परिग्रह ग्रहण किया, ऐसा सोचते हुए मन में सन्ताप करना निन्दा कहलाती है।
यहाँ टीकाकार ने 'सकलपरिग्रह का त्याग मोक्षमार्ग है' यह कहकर स्पष्ट कर दिया है कि सचेललिंग मोक्ष का मार्ग नहीं है। इससे उन्होंने सचेलमुनियों की अवधारणा को अस्वीकार किया है।
३. "चेलपरिवेष्टिताङ्ग आत्मानं निर्ग्रन्थं यो वदेत्तस्य किमपरे पाषण्डिनो न निर्ग्रन्थाः ?" (वि.टी./गा. आचेलक्कु' ४२३/पृ.३२३)।
अनुवाद-"जो शरीर को वस्त्र से आच्छादित करके भी अपने को निर्ग्रन्थ कहता है, उसके कथनानुसार क्या अन्यमतावलम्बी साधु निर्ग्रन्थ सिद्ध नहीं होते? अर्थात् उसके कथनानुसार तो सभी सम्प्रदायों के साधु निर्ग्रन्थ कहलाने लगेंगे, क्योंकि उनके सग्रन्थ कहलाने का कोई कारण नहीं रहता।"
इससे स्पष्ट होता है कि अपराजितसूरि वस्त्रधारी मुनि को निर्ग्रन्थ (साधु) ही नहीं मानते। यह सचेलमुक्ति के निषेध का बहुत बड़ा प्रमाण है।
४. "नैव संयतो भवतीति वस्त्रमात्रत्यागेन शेषपरिग्रहसमन्वितः।" (वि.टी./गा. 'ण य होदि संजदो' १११८/ पृ.५७४)।
अनुवाद-"जो वस्त्र का त्याग करता है और शेष परिग्रह रखता है, उसे संयतगुणस्थान प्राप्त नहीं होता।"
'संयत' शब्द साधु का वाचक है। अतः इस वाक्य में अपराजितसूरि ने वस्त्रादि समस्त परिग्रह के त्यागी को ही साधु कहा है। इससे सिद्ध है कि वे वस्त्रादि-परिग्रहधारी को साधु नहीं मानते।
५. "न ह्यसंयतसम्यग्दृष्टः संयतासंयतस्य वा निवृत्तविषयरागता, सकलग्रन्थपरित्यागो वास्ति।" (वि.टी./गा. 'सिद्धे जयप्प' १)।
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