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११६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१४ / प्र०१ तदनुपायमादत्ते, यथा घटार्थी तुरिवेमादीन्। मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात्। यच्चात्मनोऽभिप्रेतस्योपायस्तन्नियोगत उपादत्ते यथा चक्रादिकं, तथा यतिरपि अचेलताम्। तदुपायता च अचेलताया जिनाचरणादेव ज्ञानदर्शनयोरिव।" (वि.टी./गा. 'जिणपडिरूवं' ८४/ पृ.१२०)।
अनुवाद-"अचेललिंग जिनदेवों का प्रतिबिम्ब है। जिनेन्द्रदेव मोक्ष के अभिलाषी थे और मोक्ष के उपाय को जानते थे। अतः उन्होंने जिस लिंग को धारण किया था, वही सभी मोक्षार्थियों के योग्य है। क्योंकि जो विवेकवान् होता है, वह जिस चीज को चाहता है, उसे प्राप्त न करानेवाले उपाय को नहीं अपनाता। जैसे घट चाहनेवाला मनुष्य तुरी, वेमा आदि को ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वे घटनिर्माण के साधन नहीं हैं (अपितु पटनिर्माण के साधन हैं), वैसे ही मुक्ति चाहनेवाला मुनि वस्त्र ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वह मुक्ति का उपाय नहीं है। किन्तु जो स्वाभिलषित वस्तु. का उपाय होता है, उसे विवेकवान् मनुष्य नियम से ग्रहण करता है, जैसे घट चाहनेवाला चक्र, दण्ड आदि को। वैसे ही मोक्षार्थी मुनि भी अचेलता को नियम से अपनाता है। और अचेलता सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के समान मुक्ति का उपाय है, यह जिनेन्द्रदेव के ही आचरण से सिद्ध है।"
इस कथन में अपराजितसूरि ने 'वस्त्र मोक्ष का उपाय नहीं है, अपितु निर्वस्त्रता मोक्ष का उपाय है' इस तथ्य को जिनेन्द्रदेव के आचरण से प्रमाणित किया है। दूसरे शब्दों में, जिनेन्द्रदेव के आचरण से यह प्रमाणित किया है कि सचेल अपवादलिंग मोक्ष का उपाय नहीं है, क्योंकि मोक्षार्थी जिनेन्द्रों ने सचेललिंग ग्रहण नहीं किया। यदि वह मोक्ष का उपाय होता, तो वे उसे अवश्य ग्रहण करते, क्योंकि विवेकवान् पुरुष उसी उपाय को ग्रहण करता है, जिससे उसके अभिलषित कार्य की सिद्धि होती है। इस तरह अपराजित सूरि ने मुनि के लिए सचेल अपवादलिंग का निषेध किया है।
उपर्युक्त युक्ति से अपराजितसूरि ने इस श्वेताम्बर-मान्यता का निरसन किया है कि "तीर्थंकरों द्वारा धारण किया गया अचेललिंग साधारण पुरुषों के द्वारा अनुकरणीय नहीं है। उनके लिए तीर्थंकरों ने सचेललिंग का ही उपदेश दिया है।"
१. अरहंता जमचेला तेणाचेलत्तणं जइ मयं ते।
तो तव्वयणाउ च्चिय रितिसओ होहि माऽचेलो॥ २५८५ ॥ विशेषावश्यकभाष्य। "परमगुरूपदेशश्चैवं वर्तते-निरुपमधृतिसंहननाद्यतिशयरहितेनाचेलकेन नैव भवितव्यम्।" हेम. वृत्ति/ विशे.भा. २५८५ / पृ. ५१७। "न रथ्यापुरुष-कल्पानां भवादृशां जिनकल्पस्तीर्थकरैरनुज्ञात इति।" हेम. वृत्ति / विशे. भा./ गा. २५९२ / पृ.५१८ ।
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