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अ० १३ / प्र०३
भगवती-आराधना / १०७ ३. प्राक्तन लिङ्ग
इस प्रकार विजयोदयाटीका के 'लिङ्गं तपस्विनीनां प्राक्तनम्' (गा.८०/ पृ.११५) वाक्य में प्रयुक्त प्राक्तनम् (पूर्वगृहीत) शब्द स्पष्ट करता है कि आर्यिकाएँ जो लिङ्ग भक्तप्रत्याख्यान के पूर्व धारण करती हैं, वही उन्हें भक्तप्रत्याख्यानकाल में भी धारण करना चाहिए। आर्यिकाएँ भक्तप्रत्याख्यान के पूर्व एकसाड़ीरूप औत्सर्गिक दीक्षालिङ्ग ही धारण करती हैं, मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग नहीं। अतः 'प्राक्तन' शब्द भी उनके लिए मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग के ग्राह्य होने का निषेध करता है। ४. आर्यिका के प्रसंग में विविक्त-अविविक्त स्थान का उल्लेख नहीं
विजयोदयाटीका में जैसे भक्तप्रत्याख्यानाभिलाषिणी श्राविकाओं के लिए विविक्त और अविविक्त स्थानों का भेद करके अविविक्त स्थान में प्राक्तन लिङ्ग (पूर्वगृहीत अनेकवस्त्रात्मक अपवादरूप दीक्षालिङ्ग) का तथा विविक्त (एकांत) स्थान में आर्यिकावत् एकसाड़ीरूप अल्प-परिग्रहात्मक औत्सर्गिक-लिङ्ग का विधान किया गया है, वैसे विविक्त
और अविविक्त स्थान का भेद आर्यिकाओं के प्रसंग में नहीं किया गया है। अत एव उनके लिए प्राक्तन औत्सर्गिक लिङ्ग के अतिरिक्त अन्य किसी भी लिङ्ग का विकल्प भगवतीआराधना में निर्दिष्ट नहीं है। इससे उनके लिए मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग का विकल्प स्वतः निरस्त हो जाता है।
किन्तु पं० आशाधर जी ने विजयोदयाटीका के 'लिङ्गं तपस्विनीनां प्राक्तनम्' इस वाक्य में अपनी तरफ से 'लिङ्गं तपस्विनीनामयोग्यस्थाने प्राक्तनम्' इस प्रकार अयोग्यस्थाने पद जोड़कर यह अर्थ उद्भावित किया है कि भक्तप्रत्याख्यान के समय आर्यिकाओं को अयोग्य (अविविक्त = सार्वजनिक) स्थान में तो अपना प्राक्तन (एकसाड़ीपरिधानरूप औत्सर्गिक) लिङ्ग ही धारण करना चाहिये, किन्तु योग्य (विविक्त = एकान्त) स्थान में मुनिवत् नग्नरूप धारण कर लेना चाहिए। इस प्रकार पं० आशाधर जी ने स्वकल्पित, असंगत, आगम-प्रतिकूल व्याख्या से इस भ्रान्त धारणा को जन्म दिया है कि भगवती-आराधना में भक्तप्रत्याख्यान के समय आर्यिकाओं और श्राविकाओं के लिए मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग का विधान किया गया है।
पं० आशाधर जी ने अपने मत के समर्थन में "यदौत्सर्गिकमन्यद्वा लिङ्गं दृष्टं स्त्रिया:श्रुते" इत्यादि श्लोक उद्धृत किया है, पर उससे उनके मत का समर्थन नहीं होता, क्योंकि वह भगवती-आराधना की "इत्थीविय जं लिंगं दिटुं उस्सग्गियं व इदरं वा" गाथा का आचार्य अमितगति-कृत संस्कृत पद्यानुवाद है। उसमें भी 'यद् दृष्टं श्रुते' शब्दों से यह कहा गया है कि स्त्रियों के लिए जो औत्सर्गिक और आपवादिक दीक्षालिङ्ग आगम में निर्धारित किए गए हैं, वे ही उनके लिए मृत्युकाल में भी ग्राह्य होते हैं, और यतः
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