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अ०१३/प्र०२
भगवती-आराधना / ९३ गुफा में प्राणों का परित्याग कर दिया। मुनि चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु का शव उठाकर एक शिलातल पर रख दिया और गुफा की दीवार पर उनके चरणचिह्न उत्कीर्ण कर उनकी उपासना करते हुए वहीं स्थित रहे।११
यह कथानक इस बात का प्रमाण दे देता है कि प्राचीन काल में दिगम्बरपरम्परा में मुनियों के शव को उनके शिष्यों या संघस्थ मुनियों के द्वारा शिलातल पर रख दिया जाता था, जिसे पशुपक्षी खाकर समाप्त कर देते थे। यही उनके अन्तिम संस्कार की विधि थी। इसी का नाम विजहना है।
बीसवीं सदी ई० के आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज ने भी अपने शव की विजहना का आदेश दिया था। नवभारत टाइम्स, दिल्ली के सहायक सम्पादक श्री पूर्ण सोमसुन्दरम् का 'जैनगजट' के आचार्य-शान्तिसागर-श्रद्धाञ्जलि-अंक में 'स्वर्ग के सोपानों पर' शीर्षक से निम्नलिखित संस्मरण प्रकाशित हुआ था
"१७ अगस्त (१९५५) को आचार्यश्री जब यम-सल्लेखना महाव्रत की घोषणा कर चुके थे, तब उनके भक्तों के मन में स्वभावतः यह प्रश्न उठा कि स्वर्गारोहण के बाद महाराज के शरीर का क्या किया जाय? श्री माणिकचन्द्र, वीरचन्द्र और श्री बालचन्द्र ने निवेदन किया
"महाराज! अपनी कोई इच्छा या आदेश हो, तो बतायें।" आचार्यश्री ने मुस्कराकर कहा "बताऊँ तो पूरा करोगे?" "अवश्य! आज्ञा कीजिए" भक्तों ने कहा।
"अच्छी तरह पुनः विचार कर लो । बाद में बदलना मत," आचार्यश्री ने कहा।
__ भक्तों ने जब पुनः आश्वासन दिया, तब आचार्य महाराज बोले, "देहविसर्जन के बाद मेरे शरीर को किसी नदी के निर्जन तट पर या किसी पर्वत के शिखर पर एकान्त स्थान पर छोड़ दो।"
सुनकर भक्त लोग सन्न रह गये। बालचन्द्र जी ने कहा-"महाराज! यह क्रम तो केवल मुनिसंघ के लिए नियत है। हम तो श्रावक हैं। हम पर यह आज्ञा कैसे लागू हो सकती है?"
११९. भद्दबाहु चेयणि झाएप्पिणु धम्मज्झाणे पाण-चएप्पिणु।
गउ सुरहरि रिसि सुयकेवलि तासु कलेवरु ठविउ सिलायलि॥ गुरुहुँ पाय गुरुभित्तिहिँ लिहियइँ णियचित्तंतरम्मि स णिहियइँ। चंदगुत्ति संठिउ सेवंतउ गुरुहुँ विणउ तियलोयमहंतउ॥ १६॥ भद्रबाहुचरित्र/पृ.३२ । सम्पादक-डॉ० राजाराम जैन/ प्रकाशक-दिगम्बर जैन युवक-संघ / सन् १९९२ ।
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