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९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३/प्र०२ करते हुए खड्गवंश नामक पर्वत पर उनका निर्वाण हो गया। इस वृत्तान्त का वर्णन हस्तकश्रेष्ठि-कथानक के निम्नलिखित पद्यों में किया गया है
उपसर्गावसाने च तत्कलाद-गृहादरम्। अकृताहारसम्बन्धी निर्जगाम स धीरधीः॥ २७८॥ कौशाम्बीकापुरं लग्नं देवपादाभिधं गिरिम्। आरुरोह समुत्तुङ्गं भेदज्जाख्यो मुनिस्तदा॥ २७९॥ यावज्जीवं विधायात्र शरीराहारपूर्वकम्। नियम स मुनिर्धारः कायोत्सर्गेण तस्थिवान्॥ २८०॥ एवं स्थित्वा मुनिस्तत्र क्षपकश्रेणिकारणात्। आद्यं पृथक्त्ववीचारं शुक्लध्यानं प्रविष्टवान्॥ २८१॥ तच्छुक्लध्यानयोगेन सूक्ष्मादौ साम्परायिके। स्थित्वा स्थाने ददाहायं मोहनीयं विशेषतः॥ २८२॥ ततः क्षीणकषायाख्यस्थाने स्थित्वा सधीरधीः। ध्यानमेकत्ववीचारं द्वितीयं शुक्लमाश्रितः॥ २८३॥ अयमेकत्ववीचारध्यानयोगेन सत्वरम्। अन्तरायं निहन्ति स्म कर्म चावरणद्वयम्॥ २८४॥ सयोगिस्थानमाप्तस्य मेदज्जाख्यमुनेररम्।। केवलज्ञानमुत्पन्नं लोकालोकावलोकनम्॥ २८५॥ मेदज्जकेवली कृत्वा विहारं केवलस्य सः।
पर्वते खड्गवंशाख्ये निर्वाणमगमत्पुनः॥ ३३४॥ इस वर्णन से स्पष्ट होता है कि श्वेताम्बरीय कथा में मेतार्य मुनि को जिस ढंग से (कायोत्सर्ग, क्षपकश्रेणी, शुक्लध्यान और उच्चतर गुणस्थानों की प्राप्ति के बिना) केवलज्ञान और निर्वाण की उपलब्धि बतलायी गयी है, वह दिगम्बरजैन-सिद्धान्त के सर्वथा विरुद्ध है, किन्तु बृहत्कथाकोश में जिस रीति से बतलायी गयी है, वह दिगम्बरमत के सर्वथा अनुकूल है। इस प्रकार हम देखते हैं कि दिगम्बरसाहित्य में भी मेतार्य मुनि की कथा है और वह दिगम्बरमतानुरूप है। हरिषेण ने कहा है कि उन्होंने आराधनाग्रंथ से कथाएँ उद्धत कर कथाकोश का निर्माण किया है।११७ इससे स्पष्ट होता है कि
चारधाः।
११७. आराधनोद्धतः पथ्यो भव्यानां भावितात्मनाम्।
हरिषेणकृतो भाति कथाकोशो महीतले॥ बृहत्कथाकोश/प्रशस्ति / श्लोक ८।
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