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८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३ / प्र०२ मेघदत्ततनूजोऽहं मेदज्जाख्यो नरेश्वर।
जातो भवत्प्रसादेन राजश्रेष्ठी महाधनः॥ २३४॥ २. श्वेताम्बरकथा में मेतार्य का सवस्त्र मुनि होना निर्विवाद है, किन्तु बृहत्कथाकोश के हस्तकश्रेष्ठि-कथानक में उन्हें दिगम्बरमुनि के रूप में चित्रित किया गया है। जब अच्युतेन्द्र गृहस्थावस्था में उनसे बार-बार मुनिदीक्षा लेने का आग्रह करता है, तब वे कुपित होकर उससे कहते हैं-"कौन हो तुम? क्या नाम है तुम्हारा? कहाँ रहते हो तुम, जो मेरे पास बार-बार आकर ऐसा कहते हो? इन देवोपम भोगों को छोड़कर नंगा होने से क्या फायदा? ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष होगा जो घर में ही सब कुछ उपलब्ध होने पर भी भिक्षा के लिए गली-गली भटकता फिरे?" देखिए
पूर्णेषु द्वादशाब्देषु देवः सम्प्राप्य तं जगौ। मेदज्ज कुरु जैनेन्द्रं तपो निवृत्तिकारणम्॥ १९७॥ देववाक्यं समाकर्ण्य मेदज्जोऽमरकुञ्जरम्। बभाण भासुराकारः . कोपलोहितलोचनः॥ १९८॥ कोऽसि त्वं वद किं नाम क्व वास्तव्यो महान् किल। भूयो भूयोऽपि मां प्राप्य येनेदं भाषसे बुध ॥ १९९॥ हित्वा देवोपमान् भोगान् नग्नत्वेन करोमि किम्।
गृहसिद्धेन को नाम भिक्षां भ्रमति मूढधीः॥ २००॥ यहाँ 'नग्नत्वेन करोमि किम्?' (नग्न होकर मैं क्या करूँगा?) इन वचनों से स्पष्ट है कि अच्युतेन्द्र मेतार्य से दिगम्बरमुनि बनने का आग्रह करता है।
अन्त में जब मेतार्य को वैराग्य हो जाता है, तब वे अपने राजा सिंहवाहन के साथ श्रीधर्मगुरु से दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं, जैसा कि उक्त कथानक के निम्नलिखित श्लोकों में कहा गया है
मेदज्जोऽपि स्वपुत्रस्य श्रीदत्तस्य महात्मनः। श्रेष्ठिपढें बबन्धोच्चैस्तदानीं भूपसाक्षिकम्॥ २५७॥ राजादिकस्य लोकस्य कृत्वा त्रेधा क्षमापणम्। श्रीधर्मगुरु-सामीप्ये मेदज्जोऽशिश्रियत्तपः॥ २५८॥ तिलकश्रीस्तथा साध्वी कीर्तिषेणासमन्विता। द्वात्रिंशच्छेष्ठिसद्भार्याः सुव्रतान्ते प्रवव्रजुः॥ २५९॥ सिंहवाहन-भूपालो विषवाहन-सूनवे। दत्त्वा राज्यश्रियं सर्वां सामन्तादिपुरस्सरम्॥ २६०॥
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