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अ० १३ / प्र० २
भगवती - आराधना / ८७
इसने ही जौ चुराये हैं । तब उसने उन्हें बहुत कष्ट दिया और अन्त में भीगे चमड़े में कस दिया। इससे उनका शरीरान्त हो गया और उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया । मेरी समझ में इस ढंग की कथा दिगम्बर - सम्प्रदाय में नहीं है । चाण्डालिनी के लड़के का मुनि होना भी शायद दिगम्बर-सम्प्रदाय के अनुकूल नहीं है।" (जै. सा. इ. / प्र. सं./पृ. ५७-५८ तथा पृ. ५८ की पा. टि. २ ) ।
भगवती - आराधना में इस श्वेताम्बरीय कथा के उल्लेख को प्रेमी जी ने शिवार्य के यापनीयसंघी होने का हेतु माना है ।
दिगम्बरपक्ष
प्रेमी जी ने उपर्युक्त विचार 'जैन साहित्य और इतिहास' के प्रथम संस्करण में व्यक्त किये हैं। बाद में उन्हें पता चला कि मेतार्य मुनि की कथा हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश में भी उपलब्ध है । ११४ तब उन्होंने उक्त ग्रन्थ के द्वितीय संस्करण में यह वाक्य हटा दिया कि "मेरी समझ में इस ढंग की कथा दिगम्बरसम्प्रदाय में नहीं है" और यह वाक्य जोड़ दिया कि " हरिषेणकृत कथाकोश में मेतार्य मुनि की कथा है, परन्तु उसमें श्वेताम्बरकथा से बहुत भिन्नता है ।" ११५ यह भी ध्यान देने योग्य है कि प्रेमी जी ने अपने उपर्युक्त ग्रन्थ में हरिषेण को दिगम्बर ही माना है । ११६
अब प्रश्न है कि जब मेतार्य मुनि की कथा दिगम्बर- साहित्य में भी उपलब्ध है और उसका स्वरूप श्वेताम्बरीय कथा से बहुत भिन्न है, तब भगवती - आराधना में उल्लिखित इस कथा को प्रेमी जी ने श्वेताम्बरीय कथा का उल्लेख कैसे मान लिया ? और श्रीमती कुसुम पटोरिया एवं डॉ० सागरमल जी ने भी उनकी बात को बिना स्वयं छान-बीन किये कैसे स्वीकार कर लिया ? विद्वज्जनों की इस प्रवृत्ति पर आश्चर्य और खेद ही प्रकट किया जा सकता है।
बृहत्कथाकोश - गत मेतार्यमुनि - कथा की श्वेताम्बरीय कथा से जो अत्यन्त भिन्नता है, वह दर्शनीय है—
१. श्वेताम्बरीय कथा में मेतार्यमुनि को चाण्डलिनी - पुत्र कहा गया है, लेकिन बृहत्कथाकोश के १०५ वें हस्तक श्रेष्ठि-कथानक में उन्हें राजश्रेष्ठी का पुत्र और स्वयं राज श्रेष्ठी बतलाया गया है
११४. जैन साहित्य और इतिहास (प्रथम संस्करण) / पृष्ठ ५७१ ।
११५. वही (द्वितीय संस्करण) / पृ. ६९-७० । ११६. वही (प्रथम संस्करण) / पृ. ४४६
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