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८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० १३ / प्र० २
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" इसमें ग्रन्थकर्त्ता शिवार्य ने अपना जो विशेषण 'पाणितलभोजी' दिया है, उससे इतना तो साफ ध्वनित होता है कि इस ग्रन्थ की रचना उस समय हुई है, जब कि जैनसमाज में करतलभोजियों के अतिरिक्त मुनियों का एक दूसरा सम्प्रदाय पात्र में भोजन करनेवाला भी उत्पन्न हो गया था। उसी से अपने को भिन्न दिखलाने के लिए इस विशेषण के प्रयोग की जरूरत पड़ी है। यह सम्प्रदायभेद दिगम्बर और श्वेताम्बर का भेद है, जिसका समय उभय सम्प्रदायों द्वारा क्रमशः विक्रम सं० १३६ तथा वी० नि० सं० ६०९ (वि० सं० १३९) बतलाया जाता है। इससे यह ग्रन्थ इस भेदारम्भसमय के कुछ बाद का अथवा इसके करीब का रचा हुआ है, ऐसा जान पड़ता है ।" " ११३
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मेतार्य मुनि की कथा : लोककथा
यापनीयपक्ष
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प्रेमीजी - " आराधना की ११३२वीं गाथा में 'मेदस्स मुणिस्स अक्खाणं' (मेतार्यमुनेराख्यानम्) अर्थात् मेतार्य मुनि की कथा का उल्लेख किया गया है। पं० सदासुख जी ने अपनी वचनिका में इस पद का अर्थ ही नहीं किया है । यही हाल नई हिन्दीटीका के कर्त्ता पं० जिनदास शास्त्री का भी है। संस्कृत टीकाकार पं० आशाधर जी ने तो इस गाथा की विशेष टीका इसलिए नहीं की है कि वह सुगम है, परन्तु आचार्य अमितगति ने इसका संस्कृत अनुवाद करना क्यों छोड़ दिया ? वे मेतार्य के आख्यान से परिचित नहीं थे, शायद इसी कारण ।
"मेतार्यमुनि की कथा श्वेताम्बर - सम्प्रदाय में बहुत प्रसिद्ध है । वे एक चाण्डालिनी के लड़के थे, परन्तु किसी सेठ के घर पले थे । अत्यन्त दयाशील थे । एक दिन वे एक सुनार के यहाँ भिक्षा के लिए गये। उसने अपनी दूकान में उसी समय सोने के जौ बनाकर रक्खे थे। वह भिक्षा लाने के लिए भीतर गया और मुनि वहीं दूकान में खड़े रहे, जहाँ जौ रक्खे थे। इतने में एक क्रौञ्च (सारस) पक्षी ने आकर वे जौ चुग लिए । सुनार को सन्देह हुआ कि मुनि ने ही जौ चुरा लिए हैं। मुनि ने पक्षी को चुगते तो देख लिया था, परन्तु इस भय से नहीं कहा कि यदि सच बात मालूम हो जायेगी, तो सुनार सारस को मार डालेगा और उसके पेट में से अपने जौ निकाल लेगा। इससे सुनार को सन्देह हो गया कि यह काम मुनि का ही है,
११३. 'भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ' इस लेख पर सम्पादकीय टिप्पणी / 'अनेकान्त '/ वर्ष १ / किरण ३ / माघ / वी. नि. सं. २४५६ / पृ. १४८ ।
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